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अष्टसहस्री
[ अ० ५० कारिका ६६ दिक, सुखदुःखादिकार्यवैचित्र्यं च संसारस्य' तस्मान्नायमेकस्वभावेश्वरकृतः । न तावदयं हेतुरनिश्चितव्यतिरेकत्वादगमकः', 'साध्याभावेनुपपन्नत्वग्राहकप्रमाणसद्भावात् । न हि कारणस्यैकरूपत्वे' कार्यनानात्वं युक्तं, शालिबोजाङकुरवत् । प्रसिद्धस्तावदेकस्वरूपाच्छालिबीजादनेकाङ्कुरकार्यायोगः , स एव दृष्टान्तः स्यात् । ततः साध्विदं विपक्षे बाधकं प्रमाणमेकस्वभावकारणकृतत्वप्रतिषेधस्य साध्यस्याभावे1 12नियमेनकस्वभावकारणकृतत्वेऽनेककार्यत्वस्य साधनस्य व्यावृत्तिनिश्चयजननात्, विचित्रकार्यं च स्यादेकस्वरूपकारणकृतं च स्यादिति संभासुख, दुःखादि कार्यों की विचित्रता देखी जाती है अतएव एक स्वभाव वाले ईश्वर के द्वारा की हुई
नहीं है।"
इस हेतु का व्यतिरेक निश्चित न होने से यह अगमक है ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि साध्य के अभाव में नहीं होना रूप को ग्रहण करने वाला प्रमाण विद्यमान है। कारण को एकरूप मानने पर कार्य में नानापना युक्त नहीं है। शालि बोजांकुर के समान । जसे कि एकरूप शालि बीज से शालि का ही अंकुर उत्पन्न होता है अन्य जौ, मटर आदि का नहीं हो सकता है । अतः एक स्वरूप शालि के बीज से अनेक प्रकार के अंकुरों को उत्पन्न करने का अभाव प्रसिद्ध ही है; वही दृष्टांत है अतएव यह कथन ठीक ही है । आपके एक स्वभाव वाले ईश्वरकृत लक्षण विपक्ष में बाधक प्रमाण विद्यमान है जो एक स्वभाव कारणकृत के प्रतिषेध रूप साध्य के अभाव में नियम से एक स्वभाव कारणकृत है और ऐसा होने पर अनेक कार्यत्व रूप हेतु की व्यावृत्ति को निश्चित कराता है क्योंकि विचित्र कार्य भी होवे और एक स्वरूप कारणकृत भी होवे इस प्रकार की संभावना की शंका का अभाव ही हो जाता है।
शंका-कालादि से आपका हेतु व्यभिचारी है। अर्थात् एक स्वभाव होने पर भी विचित्र कार्य देखा जाता है और वह विचित्रता नवीन, जीर्ण आदि की अपेक्षा से होती है।
1 कामादेः । ब्या० प्र० । 2 अत्राह परः तत्कार्यसुखदुःखादिवैचित्र्यादिति हेतुव्यांतरेकरहितः सन् स्वसाध्यस्यासाधक: स्थादेवं न कस्मान्न कस्वभावेश्वरकृत इति साध्यस्थाभावे सति तत्कार्यवंचिश्यादित्येतस्य ग्राहकप्रमाणस्य साधनस्यानूपपन्नत्वात्कोर्थ : साध्यस्याभावे साधनस्याप्यभावः । दि० प्र०। 3 व्यतिरेकस्तुतिश्चित एव । ब्या० प्र०। 4 एकस्वभावेश्वरकृतत्वलक्षणे । ब्या० प्र०। 5 साध्यसद्भावे सत्येव हेतुसद्भाव इत्यर्थः । हेतोः । दि. प्र०। 6 अनुमान । दि० प्र० । 7 कामादिप्रभव: कामादि कारणं चित्रकार्य जनक न भवत्येकरूपत्वाच्छालि बीजाङ्कुरवत् । दि० प्र०। 8 विविध । ब्या० प्र०। 9 दृष्टान्तः । यत एवं तत एक स्वभावेश्वरकृतो भवतीतिलक्षणसाध्ये विपक्षेशालिबीजाङकुरवदसौ दृष्टान्तस्तत्कार्यसुखदुःखादिवैचित्र्यादित्यति साधनञ्च बाधकं भवति कथमित्युक्ते स्योत्तरमग्रेस्ति । दि० प्र०।10 कार्यनानात्वाभावसाधकम् । दि. प्र०।11 सति । कोर्थः । ब्या० प्र०।12 पर्यदासवत्त्येदं भण्यते । ब्या० प्र०। 13 अभाव इति कोर्थो: नियमेनकस्वभावकृतत्वे । ज्या० प्र० ।
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