Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 581
________________ अष्टसहस्री [ द०प० कारिका १६ दस्मदादिबुद्ध्यादिवदिति । एतेनागमात् 'अपाणिपाद' इत्यादेरीश्वरस्याशरीरत्वसाधनं प्रत्याख्यातं, तस्य युक्तिबाधितत्वात् । ततः एव' सशरीरो महेश्वरोस्त्विति चेन्न, तच्छरीरस्यापि बुद्धिमत्कारणापूर्वकत्वे तेनैव कार्यत्वादिहेतूनां व्यभिचारात् । तस्य बुद्धिमत्कारण पूर्वकत्वे वाऽपरापरशरीरकल्पनायामनवस्थाप्रसङ्गात् पूर्वपूर्वस्वशरीरेणोत्तरोत्तरस्वशरीरोत्पत्तौ भवस्य' निमित्तकारणत्वे सर्वसंसारिणां तथा प्रसिद्ध रीश्वरकल्पनावैयर्थ्यात्', स्वोपभोग्यभवनाद्युत्पत्तावपि तेषामेव निमित्तकारणत्वोपपत्तेः । इति न कार्यत्वाचेतनोपादानत्वसन्निवेशविशिष्टत्वहेतवो गमकाः स्युः । स्थित्वाप्रवर्तनार्थक्रियादि 'चेतनाधिष्ठानादिति नियमे पुनरी कर्णं रहित भी सब कुछ सुनता है, उसका जानने वाला कोई न होते हुए भी वह समस्त विश्व को जानता है जो ऐसा है महान् पुरुषों ने उसे ही प्रधान पुरुष-आदि पुरुष कहा है। इस प्रकार ईश्वर को अशरीरी मानने का भी निराकरण कर दिया है क्योंकि आपका यह आगम युक्ति से बाधित है। यौग-महेश्वर को शरीर सहित मान लजिये कोई बाधा नहीं है । जैन-नहीं, उसके शरीर को भी बुद्धिमत्कारणपूर्वक न मानने पर तो उसी शरीर से ही कार्यत्वादि हेतु व्यभिचारित हो जावेंगे। अर्थात् ईश्वर का शरीर कार्य तो है किन्तु बुद्धिमत्कारणपूर्वक नहीं है अतः कार्यत्व हेतु पक्षाव्यापक हो गया अथवा उस ईश्वर के शरीर को यदि बुद्धिमत्कारणपूर्वक मानोगे तब तो अपरापर शरीर की कल्पना में अनवस्था का प्रसङ्ग आ जावेगा। पूर्व-पूर्द के अपने शरीर से उत्तरोत्तर अपने शरीर की उत्पत्ति मानने पर भी भव (सृष्टिकर्ता ईश्वर) को निमित्त कारण कहने पर तो सभी संसारी जीवों के भी उसी प्रकार को प्रसिद्धि है पुनः ईश्वर की कल्पना व्यर्थ ही हो जायेगी अतः अपने उपभोग करने योग्य भवन आदि की उत्पत्ति में भी उन संसारी प्राणियों को ही निमित्त कारण मानना ही ठीक है। इसलिये कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, सन्निवेशविशिष्टत्व हेतु उस ईश्वर के गमक नहीं हो सकेगे। कम से प्रवृत्ति एवं अर्थक्रिया आदि चेतना से अधिष्ठित हैं ऐसा नियम करने पर तो चेतनाधिष्ठान से रहित ईश्वर आदि में भी कम से प्रवृत्ति आदि नहीं होवे क्योंकि आपके यहां ईश्वर भी तो 1 तत एव वा सशरीरो। इति पा० । अत्राह परः यत एवं तस्मादेवेश्वरः सशरीरो भवत्विति चेत् स्याद्वाद्याह एवं न कस्मादीश्वरशरीरं बुद्धिमत्कारणापूर्वकं बुद्धिमत्कारणपूर्वक वेति विकल्पस्तत्रेश्वरशरीरं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं न भवति तदा तेनैव बुद्धिमत्कारणाऽपूर्वकत्वे नैव कार्यत्वादिहेतुमालानां व्यभिचारो दृश्यते यत ईश्वरशरीरं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं भवति । तदोत्तरोत्तरबुद्धिमत्कारणशरीरकल्पनायां क्रियमाणायामन वस्था घटनात् । दि प्र०। 2 शरीरान्तरेण करोति वा । ब्या० प्र०। 3 च । ब्या० प्र०। 4 शरीरोत्पत्तावस्य । इति पा० । दि० प्र०। 5 निमित्तकारणत्व । दि० प्र०। 6 स्वोपभोग्ययोग्यभवनाद्युत्पत्तौ । इति० पा० । दि० प्र०। 7 उक्तप्रकारेण कि भवति । दि० प्र० । 8 ईश्वरस्य । 9 एतद्वयं कूतो भवति इत्याह । दि० प्र०। 10 कारणारिक प्रतिकारणमिदं चेतनाधिषठानमित्यक्ते स्थित्वा प्रवर्तनार्थक्रियादि प्रति इति ज्ञातव्यं तथा च कार्याकारणानुमाने तत्प्रतिपाद्यं चिन्तनीयं निक्षिप्तम । दि० प्र० । 11 प्रेरणात् भवति । ईश्वरान्याधिष्ठितो न भवति स्वतन्त्रत्वात् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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