________________
५१२
]
अष्टसहस्री
[ द०प० कारिका १००
चेन्न, द्रव्यापेक्षयवानादित्वसिद्धेः । इति शक्तेः प्रादुर्भावापेक्षया सादित्वम् । 'ततः शक्तिर्व्यक्तिश्च स्यात्सादिः, स्यादनादिरित्यनेकान्तसिद्धिः । यदि वा जीवानामभिसन्धिनानात्वं 'शुद्धयशुद्धी। स्वनिमित्तवशात् सम्यग्दर्शनादिपरिणामात्मकोऽभिसंधिः शुद्धिः, 'मिथ्यादर्शनादिपरिणामात्मकोऽशुद्धिर्दोषावरणहानीतरलक्षणत्वात्तेषां शुद्ध यशुद्धिशक्त्योरिति भेदमाचार्यः प्राह, ततोन्यत्रापि-भव्याभव्याभ्यां भव्येष्येव, साद्यनादी प्रकृतशक्त्योर्व्यक्ती' सम्यग्दर्शनाद्युत्पत्तेः पूर्वमशुद्धयभिव्यक्तेमिथ्यादर्शनादिसंततिरूपायाः कथंचिदनादित्वात्, सम्यग्दर्शनाद्युत्पत्तिरूपायाः पुनः शक्त्यभिव्यक्तेः सादित्वात् ।
[ स्वभावोऽतर्कगोचरः इति तस्य समर्थनं कुर्वति आचार्याः । ] कुतः शक्तिप्रतिनियम' इति चेत, तथास्वभावादिति ब्रमः1 । नहि भावस्वभावाः वह शक्ति प्रादुर्भाव पर्याय की अपेक्षा से सादि सिद्ध है। अतः शक्ति और व्यक्ति पर्याय की अपेक्षा से कथंचित् सादि हैं। वे ही शक्ति और व्यक्ति द्रव्यत्व की अपेक्षा से कथंचित् अनादि हैं इस प्रकार से अनेकांत सिद्ध है।
अथवा जीवों के नाना अभिप्रायों को शुद्धि और अशुद्धि कहते हैं। अपने सम्यग्दर्शनादि की घातक सप्त प्रकृतियों के उपशम आदि के निमित्त से सम्यग्दर्शन आदि परिणामात्मक अभिप्राय को शुद्धि कहते हैं । एवं मिथ्यादर्शनादि परिणामात्मक को अशुद्धि कहते हैं। अर्थात् मिथ्यादर्शनादि कर्मोदय के निमित्त से वह अशुद्धि होती है और उसका उदय संसार में सदैव रहता ही है इसलिये अशुद्धि की व्यक्ति भी अनादि है क्योंकि उन जीवों की वह शुद्धि और अशुद्धि दोष और आवरण की हानि एवं हानि के न होने रूप लक्षण वाली है ।
___ इसीलिये उन जीवों की शुद्धि और अशुद्धि रूप शक्तियों में आचार्यों ने भेद कहा है। उससे भिन्न भी भव्य-अभव्य के द्वारा भव्यों में ही वह होती है। प्रकृत-शुद्धि, अशुद्धि इन दोनों शक्तियों की व्यक्ति सादि और अनादि है क्योंकि सम्यग्दर्शनादि की उत्पत्ति के पहले मिथ्यादर्शनादि की संतति रूप अशुद्धि की अभिव्यक्ति कथंचित् अनादि है । सम्यग्दर्शनादि की उत्पत्ति रूप शक्ति की अभिव्यक्ति पुनः सादि रूप है।
! स्वभाव तर्क का गोचर नहीं है आचार्य इसका समर्थन करते हैं। शंका-यह शक्ति का प्रतिनियम कैसे सिद्ध होता है ? 1 शक्तेय॑क्तेश्च सादित्वमनादित्वं यतः । ब्या० प्र० । 2 व्यक्तिः शुद्धयपेक्षया सादिरशुद्धघपेक्षयानादिरिति प्रत्येतव्या। दि० प्र०। 3 नानात्वशुद्धी अनिमित्तवशात् । इति पा० । दि० प्र०। 4 अभिसन्धिः । दि० प्र०। 5 यत एवं ततः भव्याभव्यौ शूद्धयशुद्धिभाजी भवत इति व्याख्यानं वर्जयित्वा प्रकारान्तरमाह । अशुद्ध शक्तेर्व्यक्तिः , कथञ्चिदनादिःशद्धिशक्तेर्व्यक्तिः कथञ्चित्सादि इति विकल्पः केवलं भव्येषु ज्ञेयः। दि० प्र०। 6 भवतो यतः । ब्या० प्र० । 7 सम्यग्दर्शन मिथ्या दर्शनरूपशक्तयोः । ब्या० प्र०, दि० प्र०। 8 आत्मद्रव्यरूपेण । ब्या० प्र०। 9 भव्यरूपा शक्तिर्भव्येऽभव्यरूपाशक्तिरभव्ये । केष चिद्भव्यरूपा अन्येष केचिदभव्यरूपेति । दि० प्र०। 10 तथासंभवः कुत इत्याह । ब्या०प्र० । 11 यत: । ब्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org