Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 596
________________ प्रमाण का स्वरूप } तृतीय भाग [ ५१७ ननु चोपेयतत्त्वस्य सर्वज्ञत्वादेरुपायतत्त्वस्य' ज्ञापककारकविकल्पस्य हेतुवाददेवादे: 2 प्रमाणनयैरेव कात्स्यैकदेशतोधिगमः कर्तव्यो नान्यथा तदधिगमोपायान्तराणामत्रैवान्तर्भावात्', 'प्रमाणनयैरधिगम' इति वचनात् । तत्र प्रमाणमेव तावद्वक्तव्यं, ' तत्स्वरूपादिवि - प्रतिपत्तिसद्भावात् तन्निराकरणमन्तरेण तदध्यवसायानुपपत्तेः । इति भगवता पृष्टा इवाचार्याः प्राहुः, - तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥१०१॥ 7 उत्थानिका - सर्वज्ञत्व, मोक्षमार्गनेतृत्व और कर्मभूभृद्भेतृत्व ये उपेयतत्त्व हैं । ज्ञापक, कारक के भेद से हेतुवाद और देववाद आदि उपायतत्त्व हैं। प्रमाण और नयों के द्वारा ही इनका कृत्स्नरूप से और एक देश से ज्ञान करना चाहिये अन्यथा नहीं एवं इनके जानने के जो अन्य उपायसत्संख्याक्षेत्रादि बतलाये गये हैं उन सबका इन प्रमाण नयों में ही अन्तर्भाव हो जाता है । “प्रमाणनयैरधिगमः” ऐसा सूत्रकार का वचन है तब तो उसमें सर्वप्रथम प्रमाण का ही वर्णन करना चाहिये क्योकि उस प्रमाण के स्वरूप, विषय और फलादि में विसंवाद पाया जाता है, उस विसंवाद के दूर किये बिना उसका ज्ञान नहीं हो सकता है । इस प्रकार से मानों भगवान् के द्वारा प्रश्न करने पर ही श्री समंतभद्र आचार्यवर्य कहते हैं— Jain Education International भगवन् ! तब शासन में तत्त्वज्ञान प्रमाण कहा जाता । उसमें युगपत् सर्वप्रकाशी, केवलज्ञान कहा जाता ।। क्रमभावी हैं मतिज्ञानादिक, ज्ञान प्रमाणीभूत सही । स्याद्वाद से नय से संस्कृत, जो क्रमभावी ज्ञान वही ॥ १०१ ॥ कारिकार्य - हे भगवान् ! आपके सिद्धान्तानुसार तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है उसमें युगपत् सर्वपदार्थों का अवभासन करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है एवं क्रमभावी जो ज्ञान हैं वे स्याद्वादनय से संस्कृत मतिश्रुत ज्ञानादि हैं ॥ १०१ ॥ 1 सर्वज्ञत्वादेरुपायसाधनस्य तत्त्वस्य च ज्ञापककारक । इति पा० । दि० प्र० । 2 अनुमानागमवादः ज्ञायक विकल्पः देवपुरुषादिः कारकविकल्पः तस्य साधनरूपस्य | आदिशब्दः प्रत्येकं परिसमाप्यते तेन हेतुवादादेः देवादेरिति संबन्धोत्रादिशब्दाभ्यां क्रमेणाहेतुवादापौरुषे ग्राह्ये । दि० प्र० । 3 निक्षेपरूपाणाम् 1 ब्या० प्र० । 4 प्रमाणनयेषु । दि० प्र० । 5 प्रमाणप्रमानयानां मध्ये प्रथमतः प्रमाणमेव कथनीयं कस्मात् प्रमाणलक्षणप्रमाणसंख्याप्रमाणविषयविवादघटनात् । प्रमाणलक्षणादिविवादनिराकरणं विना प्रमाणनिश्चयो नोत्पद्यते । दि० प्र० । 6 प्रमाण । दि० प्र० । 7 सम्यक् । ब्या० प्र० । 8 एतेन मत्यादिज्ञानं प्रमाणमित्युक्तम् । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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