Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 606
________________ प्रमाण का स्वरूप ] तृतीय भाग [ ५२७ ज्ञानस्य संवादनकान्तः संभवति, विरोधात् । 'नन्वनुमानस्य संभवत्येवावस्तुविषयत्वेन मिथ्याज्ञानस्यापि सर्वदा संवादनं लिङ्गज्ञानवत् पारम्पर्येण वस्तुनि प्रतिबन्धात् । तदुक्तं लिङ्गलिङ्गिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि । 'प्रतिबन्धात्तदाभासं शून्ययोरप्यवञ्चनम् ॥' ___ इति कश्चित् 'सोप्यनालोचिताभिधायी, सर्वदा संवादिनः प्रत्यक्षवन्मिथ्याज्ञानत्वविरोधात् । तथा न लैङ्गिकं सर्वथैवाविसंवादकत्वात् । न हि तदालम्बनं 'भ्रान्तं, प्राप्येपि वस्तुनि 1 भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । प्राप्ये तस्याविसंवादकत्वे स्वालम्बनेप्यविसंवादकत्वम् । इति रूप एकांत सम्भव नहीं है, विरोध आता है । अर्थात् मिथ्याज्ञान हमेशा विसंवादरहित एक रूप ही हों ऐसा कहना ठीक नहीं है बौद्ध विशेष अनुमान तो सर्वदा संवाद रूप ही है एवं मिथ्याज्ञान भी सर्वदा अवस्तु को विषय करने वाला होने से संवादी ही है वह लिंगज्ञान के समान परम्परा से वस्तु में अविनाभावी है। कहा भी है श्लोकार्थ-साधन और साध्य की बुद्धि में उक्त प्रकार से परम्परा से वस्तु में अविनाभाव है अतः वह तदाभास है और वस्तु तथा वस्तु का प्रतिभास इन दोनों को शून्य कहने पर भी यह कथन अविसंवादी हो जावेगा। जैन -आप भी बिना विचारे ही कथन करने वाले हैं जो हमेशा ही संवादी है, प्रत्यक्ष के समान वह मिथ्याज्ञान भी नहीं हो सकता है। उसी प्रकार से अनुमान भी सर्वथा ही संवादी नहीं है । अर्थात् सर्वथा ही आलम्बन और प्रापण प्रकार से वह अनुमान ज्ञान अविसंवादी नहीं है। अनुमान का आलम्बन-सामान्यमात्र है वह भ्रांत नहीं है अन्यथा प्राप्य-स्वलक्षण वस्तु में भी भ्रांतपने का प्रसंग आ जावेगा। यदि आप कहें कि वह अनुमान स्वलक्षण को विषय करने में 1 पुनराह स्या० मिथ्याज्ञानं सर्वथासंवादकं न भवति कुतः मिथ्याज्ञानं सर्वथा संवादकयोरन्योन्यं विरोधात् = अत्राह सौगत: सौगताभ्युपगतनिरन्वयक्षणक्षयिलक्षणवस्त्वग्राहकत्वेव कृत्वाऽन्यापोहग्राहकत्वान्मिथ्याज्ञानस्याप्यनुमानज्ञानस्य संवादनकान्तः संभवति कस्मात्सर्वदा संवादस्य घटनात् यथा प्रथमसमयोत्पन्नसाधनज्ञानस्य क्रमेणाग्न्यादिवस्तुनि साक्षात्करणात् । दि० प्र०। 2 संवादानन्तर । इति पा०। संवादस्य । दि० प्र० । 3 अनुक्रमेण । अग्निस्वलक्षणाद्ध मस्वलक्षणं धूमस्वलक्षणाद्भूमनिर्विकल्प: धूमनिर्विकल्पः धूमनिर्विकल्पकालूमविकल्प: धूमज्ञानमित्यर्थः धूमविकल्पादनुमानं विकल्पवद्विज्ञानमिति पारंपर्यम् । दि०प्र०। 4 साधनसाध्ययोः । दि०प्र०। 5 उक्तप्रकारेण । ब्या० प्र०। 6 स्वलक्षणरूपधिय:=आकार=संवाद । वस्तुप्रतिभासरहितयोः । दि० प्र०। 7 स्या० सोपि सौगतो विवेच्यजल्पक: कस्माद्यथा सर्वथा संवादिनः प्रत्यक्षस्य मिथ्याज्ञानत्वं विरुद्धयते तथानुमानस्यापि न दोषः=स्या० यथा सौगतैरभ्युपगम्यते तथानुमानं कस्मात्सर्वथैव विसंवादकत्वात् । दि० प्र० । 8 लैंगिकस्य । अनुमानस्य । दि० प्र०। 9 आह परः तदनुमानमात्मज्ञान निश्चये भ्रान्तमस्ति स्या० एवं न हि । कस्मात्तदालंबनभ्रान्तत्वे अग्न्यादौ साध्येपि वस्तुनि भ्रान्तत्वमायाति यतः तस्यानुमानस्य साध्यत्वे सति स्वविषयेपि सत्यत्वं स्यात् । इति हेतोरनुमानस्य सर्वथैव सत्यत्वं कथं न कस्मात् यथा प्रत्यक्षसामान्यविशेषात्मकवस्तुगोचरत्वप्रसिद्ध रन्यथा तयोरप्रमाणत्वात । दि० प्र०।10 सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वप्रसिद्धरित्यनन्तरं वक्ष्यमाणोपपत्तिरत्र प्रतिपत्तव्याः । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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