Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 614
________________ तर्क प्रमाण का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५३५ त्वयोधमतत्कारणयोर्वा साकल्येन व्याप्तिप्रतिपत्तौ न प्रत्यक्षमुत्सहते, सन्निहितार्थाकारानुकारित्वात् इन्द्रियजमानसस्वसंवेदनप्रत्यक्षस्य योगिप्रत्यक्षस्य अपरीक्षाक्षमत्वाच्च । नानुमानमनवस्थानुषङ्गात् । सुदरमपि गत्वा तदुभयव्यतिरिक्तं व्यवस्थानिमित्तमभ्युपगन्तव्यम् । 'तदस्माकमूहाख्यं प्रमाणमविसंवादकत्वात् समारोपव्यवच्छेदकत्वादनुमानवत् । न चोहः सम्बन्धज्ञानजन्मा, यतोनवस्थानं स्यादपरापरोहानुसरणात्, तस्य प्रत्यक्षानुपलम्भजन्मत्वात् 'प्रत्यक्षवत्, स्वयोग्यतयैव स्वविषये प्रवृत्ते । सम्बन्धज्ञानमप्रमाणमेव, प्रत्यक्षानुपलम्भपृष्ट है क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नहीं है क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रमाण सन्निहित-निकटवर्ती वर्तमान पदार्थ के आकार का ही अनुकरण करता है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और योगी प्रत्यक्ष ये चारों ही प्रत्यक्ष परीक्षा को करने में समर्थ नहीं हैं-व्याप्ति को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हैं। आपने भी योगी प्रत्यक्ष को निर्विकल्प रूप होने से व्याप्ति का ग्राहक नहीं माना है। अनुमान भी व्याप्ति को ग्रहण नहीं कर सकता है अन्यथा अनवस्था का प्रसङ्ग आ जावेगा। अर्थात यदि अनुमान ज्ञान में व्याप्ति ज्ञान कारण है तब तो वह व्याप्ति उसी अनुमान से ग्रहण की जाती है या अनुमानान्तर से ? उसी से कहो तो अन्योन्याश्रय दोष आ जाता है। अनुमानान्तर से कहो तो अनवस्था आती है। व्याप्ति को ग्रहण करने के लिये अनुमान एवं अनुमान की उत्पत्ति के लिये व्याप्ति ज्ञान की उत्तरोत्तर कल्पना करते चलिये कहीं भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। बहुत दूर जाकर भी प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न उस व्याप्ति की व्यवस्था के लिये निमित्तभूत कोई प्रमाण स्वीकार करना ही पड़ेगा। "वही हम लोगों के यहाँ तर्कनाम का प्रमाण है क्योंकि वह अविसंवादी है और समारोप का व्यवच्छेदक है, अनुमान के समान ।" एवं यह तर्क ज्ञान, सम्बन्धज्ञान-भिन्न व्याप्तिज्ञान से उत्पन्न नहीं हुआ है कि जिससे अपरापर तर्क का अनुसरण करने से अनवस्था आ जावे । यह तर्क ज्ञान तो प्रत्यक्षानुपलम्भ (उपलम्भानुपलम्भ) से उत्पन्न हुआ है प्रत्यक्ष ज्ञान के समान और यह अपनी योग्यता से ही अपने विषय में प्रवृत्ति करता है अन्य किसी की अपेक्षा से नहीं। बौद्ध-"यह तर्क ज्ञान अप्रमाण ही है क्योंकि यह प्रत्यक्षानुपलम्भ के अनन्तर होने वाला होने से विकल्प रूप है और गृहीत को ग्रहण करने वाला है इस सम्बन्ध का ज्ञान कराने में पुनः प्रवर्तमान प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ ही प्रमाण हैं। 1 अभ्युपगतम् । स्याद्वादिनाम् । दि० प्र० । 2 न चोहापोहे सम्बन्धज्ञानं । इति पा० । दि० प्र० । अत्राह पर भवता ज्ञानमूहाख्यमन्यस्मादूहापोहसम्बन्धज्ञानाज्जायते तदन्यस्मात्तदन्यस्मादेव एवमुत्तरोत्तरोह्यनुसरणादनवस्थानं तस्य स्यादित्युक्त स्याद्वायाह कस्मात् । तत ऊहाख्यं महानसादावग्निधमस पश्चात्तस्य प्रत्यक्षस्याऽदर्शनं ताभ्यां जायते यतः पुन: कस्माद्यथा प्रत्यक्षस्य सन्निहितस्थूलप्रकाशादिलक्षणस्वयोग्यत्वेनात्मीय ग्राह्यार्थे वर्तते तथा ऊहाख्यस्यापि स्वविषये प्रवर्तनात् । दि० प्र० । 3 व्यवस्थितिनिमित्तादपरः । ब्या० प्र० । 4 ननु च सम्बन्धज्ञानपूर्वकं मा भूत स्वविषये प्रवृत्तो सम्बन्धज्ञानपूर्वकं भविष्यतीत्याह । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688