Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 613
________________ ५३४ ॥ अष्टसहस्री [ द०प० कारिका १०१ प्रमाण त्वस्थितेः, अविसंवादस्यापि स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात् । अन्यथा हि विसंवादः स्यात्संशयादिवत् । न चेदं प्रत्यभिज्ञानमव्यवसायात्मक, तद्वेवेदं तत्सदृशमेवेदमित्येकत्वसादृश्यविषयस्य द्विविधप्रत्यभिज्ञानस्याबाधितस्यारेकादिव्यवच्छेदेनावगमात्, बाध्यमानस्याप्रमाणत्वोपपत्तेस्तदाभासत्वात् । न च सर्व प्रत्यभिज्ञानं बाध्यमानमेव, प्रत्यक्षस्य तद्विषये 'प्रवृत्त्यसंभवादबाधकत्वादनुमानस्यापि तद्विषयविपरीतसर्वथाक्षणिकविसदृशवस्तुव्यवस्थापकस्य' निरस्तत्वात्तबाधकत्वायोगात् । ततः प्रत्यभिज्ञानं तत्वज्ञानत्वात्प्रमाणं प्रत्यक्षवत् । [ तर्कज्ञानमपि पृथक्प्रमाणमेवेति साधयंति जैना कार्याः ] 1°एवं लिङ्गलिङ्गिसंबन्धज्ञानं प्रमाणमनिश्चितनिश्चयादनुमानवद् । 'सत्त्वक्षणिक "यह वही है, यह उसके सदृश है" इस प्रकार से एकत्व और सादृश्य रूप से दो प्रकार का प्रत्यभिज्ञान अबाधित है जो कि संशयादि का व्यवच्छेदक माना गया है। जो प्रत्यभिज्ञान बाधित होता है वह अप्रमाण होने से प्रत्यभिज्ञानाभास है और सभी प्रत्यभिज्ञान बाधित हो होवें ऐसा नहीं है क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के विषय में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति हो नहीं सकतो है। अतः वह प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञान को बाधित नहीं कर सकता है। अनुमान भी प्रत्यक्ष के विषय से विपरोत सर्वथा नित्य विसदृश वस्तु का व्यवस्थापक है। इस बात का निरसन कर दिया गया है अतः वह अनुमान भी इसलिये "प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है क्योंकि वह तत्त्वज्ञान रूप है, प्रत्यक्ष के समान ।" [ तर्क ज्ञान भी पृथक् प्रमाण ही है ऐसा जैनाचार्य सिद्ध करते हैं। ] लिंग और लिंगी के सम्बन्ध का ज्ञान रूप तर्क ज्ञान प्रमाण है क्योंकि वह अनिश्चित का निश्चय कराने वाला है अनुमान के समान ।" सत्त्व और क्षणिक रूप साधन-साध्य में अथवा धूम और उसके कारण भूत अग्नि में संपूर्णतया व्याप्ति का ज्ञान कराने के लिये वह प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नहीं 1 अविसंवादः पक्षः प्रमाणं भवतीति साध्यो धर्मः स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात् । अन्यथा स्वार्थव्यवसायात्मकत्वाभावे विसंवादोऽसत्य: स्यात् यया संशयादिकम् । दि० प्र० । 2 प्रत्यभिज्ञान भास: । दि० प्र०। 3 प्रमाण । दि० प्र० । 4 प्रत्यभिज्ञान । दि० प्र०। 5 अतएव । ब्या० प्र०। 6 तद्विषयवपरीत्यम् । इति पा० । दि० प्र० । प्रमाणस्य । । ब्या० प्र०। 8 प्रत्यभिज्ञान विषयः । दि० प्र० । 9 अबाध्यं यतः । ब्या० प्र०। 10 प्रत्यभिज्ञानप्रकारेण । दि० प्र०। 11 स्या० सर्व क्षणिक सत्त्वात् यो यो भाव: सन् स सर्वोपि क्षणिक इति सौगताभ्युपगतयोः सत्त्वणिकत्वयोः सर्वमताभिमतयोः धूमाग्न्योर्वा सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामिति साकल्येन व्याप्तिपरिज्ञ ने प्रत्यक्षं समर्थं भवत्यनुमानं वेति विकल्पः न तावत्प्रत्यक्षं समर्थं स्यात् । कस्मादासन्नवर्तमानस्थू लार्थस्वरूपग्राहकत्वात् प्रत्यक्षस्य पुन: कस्मात्सोगतादिपराभ्युपगतप्रत्यक्षस्यापि व्याप्तिप्रतिपत्ती परीक्षासहत्वात् । तथा सम्बन्धज्ञानेऽनुमानमपि समर्थं न भवति कस्माद् व्याप्तिबलादनुमानमुदेति तद्व्याप्तेः परिज्ञानेनानुमानमुत्सहते एवमुत्तरोत्तरानुमानस्य व्यवस्थानाभावात् एवं दूरतरं गत्वापि सौगतादिभिः प्रत्यक्षानुमानाभ्यां भिन्नभूतं सम्बन्धज्ञाने स्वस्य व्यवसायार्थमूहाख्यं ज्ञानमङ्गीकर्तव्यम् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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