Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 658
________________ तृतीय भाग नय का लक्षण ] । ५७६ हानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयदुर्णयानां प्रकारान्तरासंभवाच्च, 'प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेर्नयातत्प्रतिपत्ते१र्णयादन्यनिराकृतेश्च । इति विश्वोपसंहतिः, व्यतिरिक्तप्रतिपत्तिप्रकाराणामसम्भावत्। नन्वेवमनेकान्तात्मार्थः कथं 'वाक्येन नियम्यते यतः 'प्रतिनियते विषये प्रवृतिलॊकस्य स्यादित्यारेकायामिदमभिदधते, 1°नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा। "तथान्यथा च "सोवश्यमविशेष्यत्वमन्यथा ॥१०६॥ प्रमाण का विषय धर्मांतरों का ग्रहण करना है नयों का विषय धर्मातरों की उपेक्षा (गौण) करना है तथा दुर्णय का विषय धर्मांतरों का त्याग करना है। अन्य कोई चौथा प्रकार ही असंभव है, क्योंकि प्रमाण से तत् अतत् स्वभाव का ज्ञान होता है। नय से तत्-एक अंश का ज्ञान होता है और दुर्णय से अन्य का निराकरण करके निरपेक्ष एक अंश का ज्ञान होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रमाणनय और दुर्णयों का संग्रह हो गया। इनसे व्यतिरिक्त ज्ञान करने के प्रकार ही असंभव हैं । उत्थानिका-इस प्रकार से अनेकांतात्मक अर्थ वाक्य के द्वारा कैसे निश्चित होता है कि जिससे प्रतिनियत विषय में लोक की प्रवृत्ति होवे ऐसी आशंका के होने पर आचार्यवर्य समाधान करते हैं विधीवाक्य या निषेधवाक्यों, से पदार्थ का कथन सही। विधीवाक्य से वस्तु "अस्ति" है, निषेध वच से नास्ति कही ।। यदि ऐसा नहिं मानों तब तो, वस्तु विशेषण शून्य रही। पुनः विशेष्य नहीं होने से, वस्तु “अवस्तू" असत् हुई ॥१०६॥ कारिकार्थ-विधि वाक्य अथवा निषेध वाक्य के द्वारा अर्थ का निश्चय किया जाता है । वह अर्थ विधि वाक्य से विधि और प्रतिषेध वाक्य से प्रतिषेध रूपसिद्ध है, अन्यथा-एकांत रूप से विचार करने पर तो अर्थ के सत्त्व असत्त्व में भेद ही नहीं हो सकेगा। ॥१०६॥ 1 विवक्षित । ब्या०प्र०। 2 प्रत्यनीकधर्म । ब्या० प्र०। 3 तद्वयतिरिक्त । इति पा० । ब्या० प्र० । प्रमाणनयदुनंयव्यतिरिक्त । ब्या० प्र०। 4 अन्यथा । ब्या० प्र०। 5 उक्तप्रकारेण । ब्या० प्र०। 6 प्रश्ने । ब्या० प्र० । 7 साधनवाक्येन । ब्या० प्र०। 8 वाक्यात् । ब्या० प्र० । 9 नित्य एवानित्य एव । ब्या० प्र०। 10 विशेष । ब्या० प्र०। 11 वाक्यात् । दि० प्र० । तदतदात्मकोवश्यमभ्युपगन्तव्यः । ब्या० प्र०। 12 अर्थस्य सन्नर्थोसन्नर्थ इत्यनेन प्रकारेण विशेष्यत्वाभावोन्योन्यनिरपेक्षे विधिप्रतिषेधयोविशेषणत्वासंभवात् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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