Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 679
________________ प्रशस्ति का हिन्दी अनुवाद सिद्धों को और अहंतों को नमस्कार करके सन्मति-महावीर भगवान को हृदय में धारण करती हूँ पुनः श्रुतदेवी-जिनवाणी माता और समस्त मुनियों की अपनी सिद्धि के लिये स्तुति करती हूँ।१। इस युग में पृथ्वी तल पर श्री वीर भगवान का शासन प्रवर्त रहा है। उस समय से गौतम स्वामी से लेकर महर्षियों की परम्परा क्रमपूर्वक चली आ रही है ॥२।। उसी परम्परा में आचार्य(गव श्री कुन्दकुन्दगणी हुये, इस पृथ्वी तल पर उनके नाम से अन्वय (वंश) चल रहा है ॥३॥ उसी का स्पष्टीकरण मूलसंघ में महान् कुन्दकुन्दान्वय, बलात्कार गण, सरस्वती गच्छ प्रसिद्ध हैं ।।४।। इसी परम्परारूपी मणिमाला में चतुर्विध संघ के अधिनायक चारित्र-चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी नाम के महान् आचार्य हुए हैं ॥५॥ उनके पट्टाधीशआचार्य श्री वीर सागर महाराज विख्यात हुए जिन्होंने मुझ अल्पज्ञानी को आर्यिका दीक्षा देकर ज्ञानमती नाम दिया है ॥६॥ आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज मेरे आद्य गुरु हुये हैं जिनकी कृपा प्रसाद से मैंने गृहत्याग करके क्षुल्लिका व्रतों को प्राप्त किया था ॥७॥ गुरुभक्ति और सरस्वती के प्रसाद से मैंने कुछ शास्त्रों का अध्ययन करके शिष्यों को अध्यापन कराया था ।।८।। अनेक मुनि आर्यिकायें और ब्रह्मचारिणियाँ मेरे से विद्या, शिक्षा ग्रहण कर आज सर्वत्र धर्म प्रभावना कर रहे हैं । अध्यापन के इसी क्रम में जयपुर नामक शहर में मैंने इस अष्टसहस्री ग्रन्थ का अनुवाद कार्य प्रारम्भ किया।॥१०॥ राजस्थान के टोडरायसिंह नामक ग्राम में श्री पार्श्वनाथ जिनालय में अनुवाद करती हुई वीर निर्वाण संवत् चौबीस सौ छियानवे (२४६६) शुभ वर्ष में पौष कृष्णा द्वादशी शुक्रवार को अपने चित्त में जिनेन्द्र भगवान तथा सरस्वती माता को धारण कर जिन प्रतिमा के सानिध्य में यह अनुवाद कार्य मैंने पूर्ण किया। भावार्थ-अभी वीर नि० सं० २५१६ चल रहा है। अष्टसहस्री ग्रंथ का प्रथम भाग वीर नि० सं० २५००वें वर्ष में छपा था। अब २० वर्ष के बाद पुनः वह प्रथम भाग तथा द्वितीय भाग और तृतीय भाग इन तीनों भागों में पूर्ण होकर यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है । आचार्य श्री वीरसागर गुरुदेव के पश्चात् उनके तपस्वी शिष्य मुनि श्री शिवसागर महाराज उस पट्ट के आचार्यवर्य हुए। उनके पट्ट पर श्री धर्मसागर मुनिराज आचार्य बने जो कि गुरुवर वीरसागर महाराज के ही द्वितीय दीक्षित शिष्य थे। उन आचार्यश्री धर्मसागरजी महाराज के सानिध्य में पौष शुक्ला पूर्णिमा के दिन उनकी जन्म जयन्ती महोत्सव पर मेरे द्वारा अनुवादित यह ग्रंथ पालकी में रखकर भगवान के रथ के साथ इस शोभा यात्रा निकाली गई। उस दिन भाक्तिक श्रावकों ने चतुर्विध संघ सानिध्य में श्रुतस्कंध विधान करके महती धर्म प्रभावना की। यह भाषा टीका से समन्वित अष्टसहस्री ग्रंथ पृथ्वी तल पर स्थित रहे, विद्वानों के हृदय में आनन्द को प्रदान करे और मझे ज्ञानमती लक्ष्मी को प्रदान करे। जब तक इस धरती पर जिनेन्द्र भगवान का - रती र जिनेन्द्र भगवान का धर्म स्थित रहे तब तक यह ज्ञानभास्कर स्वरूप महान् ग्रन्थ सभी भव्यजीवों को सौख्यप्रद होवे । "स्याद्वाद चिंतामणि' नाम की यह टीका मुझ अल्पबुद्धि के द्वारा रची गई है। जो मेरे सम्यक्त्वशुद्धि के लिए होवे तथा जगत् के लिए एवं मेरे लिए चिंतामणिरत्न के समान फल प्रदान करे। 卐-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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