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स्याद्वाद की व्यवस्था ]
अस्ति रूप वचन अपने अर्थ को नहीं कह सकेंगे। यदि द्वितीय पक्ष लेवो तो वचनों का अभिप्राय मिथ्या होने से वे अर्थ के प्रतिपादक नहीं होंगे क्योंकि मिथ्या विकल्प के हेतु हैं। अतः शब्द का अर्थ अन्यापोह सिद्ध नहीं होता है, प्रत्युत सत्य लाञ्छन स्यात्कार ही सिद्ध होता है। सभी मनुष्य किन्हीं विधि वचनों से अभिप्रेत अर्थ को प्राप्त करते हैं एवं पर रूपादि से अनभिप्रेत अर्थ को प्राप्त नहीं करते हैं । अन्यथा प्रवर्तक जनों की प्रवृत्ति ही व्यर्थ हो जायेगी।
"अस्ति" इत्यादि शब्द से विधेय वाक्य ही ईप्सित अर्थक्रिया के प्रति कारण हैं और वे नास्तित्वादि धर्म से अविरोधी हैं- अविनाभावी हैं तथा उसी प्रकार से आदेय और हेय रूप हैं इस प्रकार से स्याद्वाद की सम्यक व्यवस्था बन जाती है। क्योंकि "विधि और प्रतिषेध परस्पर में अविनाभावी हैं जैसे स्वार्थज्ञान"। स्वज्ञान के बिना पदार्थ का ज्ञान असम्भव है एवं विषयाकार ज्ञान के बिना स्वज्ञान हो जावे, ऐसा भी शक्य नहीं है अन्यथा स्वाकार अर्थ ज्ञेय नहीं हो सकेगा।
तथैव वस्तु का आदेय और हेयत्व भी सिद्ध है। यदि एकांत से विधेय को हो मानें तो किसी को कुछ भी हेय नहीं रहेगा। तथा प्रतिषेध एकांत में तो कोई वस्तु आदेय नहीं होगी। अतः स्याद्वादियों को उभयात्मक में ही आदेय हेयत्व इष्ट है। क्योंकि विधेय और प्रतिषेध्य में कथंचित् तादात्म्य इष्ट है।
जिस प्रकार से 'अस्ति' विशेष विधेय है वह स्वस्वरूप से विधेय है प्रतिषेध रूप से नहीं है, अतः कथंचित् विधेय सिद्ध है । तथैव प्रतिषेध स्वरूप विशेष भी विधेय रूप से प्रतिषेध्य है न कि प्रतिषेध्य स्वरूप से है। अतः कथंचित् प्रतिषेध्य है, कथंचित् अप्रतिषेध्य है । तथैव जीवादि पदार्थ भी कथंचित् विधेय हैं एवं कथंचित् प्रतिषेध्य हैं । इत्यादि सप्तभंगी प्रक्रिया, युक्ति और आगम से अविरुद्ध सिद्ध है।
____ इसलिये हे भगवान् ! हमने निर्दोष रूप से निश्चित किया है कि वह निर्दोष आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं । आप ही मोक्षमार्ग के प्रणेता कर्मभूभृद्भत्ता एवं विश्व तत्त्वों के ज्ञाता सिद्ध हैं अत: आप ही भगवान् अर्हत सर्वज्ञ हैं, स्याद्वाद के नायक हैं । यह बात सिद्ध हो गई।
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