Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 671
________________ ५६२ ] अष्टसहस्री [ द० ५० कारिका ११४ विशेषप्रतिपत्तये युक्तात्ममीमांसा भगवतामाचार्याणां परहितसंपादनप्रवणहृदयत्वात्, दर्शनविशुद्धिप्रवचनवात्सल्यमार्गप्रभावनापरत्वाच्च । ततः परमार्हन्त्यलक्ष्मीपरिसमाप्तेः स्वार्थसम्पत्तिसिद्धिः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सम्यगुपदेशः, तदन्यतमापाये मोक्षस्यानुपपत्तेः समर्थनात् । 'ज्ञानेन चापवर्गः' इत्यादिमिथ्योपदेशस्तस्य दृष्टेष्टविरुद्धत्वसाधनात् । 'तयोरर्थविशेषः सत्येतरविषयभेदः सम्यग्दर्शनादिमिथ्यादर्शनादिप्रयोजनभेदो वा तद्भावनाविशेषो वा मोक्षबन्धप्रसिद्धिभेदो वा । तस्य प्रतिपत्तिरुपादेयत्वेन हेयत्वेन च श्रद्धानमध्यवसायः समाचरणं चोच्यते। तस्यै सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये । 'शास्त्रारम्भेभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया कर्मभूभृद्भेत्तृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च भगवदर्हत्सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनपरा परीक्षेयं विहिता । इति स्वाभिप्रेतार्थनिवेदनमाचार्याणामाविचार्य प्रतिपत्तव्यम् । क्योंकि भगवान् आचार्य श्री समंतभद्रस्वामी परहित सम्पादन में प्रवण हृदय वाले हैं और वे दर्शनविशुद्धि, प्रवचनवात्सल्य, मार्गप्रभावना में भी तत्पर हैं। इससे आगे आहंत्य लक्ष्मी की परिसमाप्ति पर्यंत स्वार्थ सम्पत्ति की सिद्धि करने वाली है। __ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः' । यह सम्यग् उपदेश है । इसमें से किसी एक का भी अभाव कर देने से मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। ऐसा समर्थित किया है। "ज्ञानेय चापवर्ग:" यह मिथ्या उपदेश है क्योंकि प्रत्यक्ष परोक्षादि से विरुद्ध है ऐसा सिद्ध कर दिया है। उन दोनों का अर्थ विशेष भी सत्य और असत्य का विषय भेद अथवा सम्यग्दर्शनादि और मिथ्यादर्शनादि का प्रयोजन भेद अथवा उनकी भावना विशेष या मोक्ष और बंध का प्रसिद्ध भेद ग्रहण करना चाहिये। उस भेद की प्रतिपत्ति -ज्ञान उपादेय और हेय रूप से श्रद्धान, अध्यवास-ज्ञान और समाचरणचारित्र विशेष कहा गया है। _ 'उस सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ विशेष की प्रतिपत्ति के लिये आप्त मीमांसा है।' शास्त्र के आरम्भ में स्तुत आप्त मोक्षमार्ग के प्रणेता रूप से, कर्मभूभृद्भत्ता रूप से एवं विश्वतत्त्वों के ज्ञाता रूप से सिद्ध हैं ऐसे भगवान् अहंत सर्वज्ञ में ही 'अन्ययोग के व्यवच्छेद से ये आप्त हैं' ऐसी व्यवस्था करने में तत्पर यह परीक्षा की गई है। ___इस प्रकार से आचार्यवर्य के स्वाभिप्रेत अर्थ का निवेदन आर्य पुरुषों को विचार करके समझ लेना चाहिये। 1 सम्यग्मिथ्योपदेशयोः । सम्यग्दर्शनादिभावनाविशेषः । दि० प्र०12 सम्यग्दर्शनादिमिथ्यादर्शनादिभावना विशेषः । ब्या० प्र०। 3 प्रकृष्टसिद्धिः । ब्या० प्र०। 4 तत्त्वार्थशास्त्रारम्भे । ब्या० प्र०, दि० प्र०। 5 देवागमरूपा। ब्या०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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