Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 662
________________ विधि वाक्य के एकांत का खण्डन } 'तदतद्वस्तुवागेषा 3 तृतीय भाग "तदेवेत्यनुशासती । 4 न सत्या स्यान्मृषावाक्यैः कथं तत्त्वार्थदेशना ॥ ११० ॥ [ वाक्यं विधिमुखेनैव वस्तुतत्त्वं वक्तुं न शक्नोति । ] 'प्रत्यक्षादिप्रमाण विषयभूतं 'विरुद्धधर्माध्यासलक्षणमविरुद्धं वस्तु समायातं, स्वशिरस्ताडं पूत्कुर्वतोपि तदतद्रूपतयैव प्रतीतेः । तदुक्तं, — 'विरुद्धमपि संसिद्धं तदतद्रूपवेदनम् । यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के 'वयम् ॥१॥ इति । तच्च तदेवेत्येकान्तेन प्रतिपादयन्ती मिथ्यैव भारती, विध्येकान्ते प्रतिषेध [ ५८३ वस्तू "तत्" अरु "अतत्" रूप है, परन्तु जो " तत्" ही कहते । ऐसे वच तो असत्य ही हैं, चूंकि वस्तु " अतत्" भी है || पुनः मृषा वचनों से कैसे, तत्त्वों का उपदेश घटे । विधीवाक्य से अस्तिमात्र हो, कोई पदारथ नहीं दिखें ॥ ११० ॥ कारिकार्थ - ये वचन 'तत्, अतत्' स्वभाव वाली वस्तु का प्रतिपादन करते हैं, यदि वचन वह ही है, इस प्रकार स्वरूप के समान पररूप से भी विधिरूप मात्र ही वस्तु को प्रतिपादित करें तब तो वे वचन असत्य हो जायेंगे पुनः असत्य वचनों से तत्त्वार्थ का उपदेश कथन कैसे हो सकेगा ? ।। ११० । [ वाक्य विधि रूप से ही वस्तु का कथन नहीं कर सकते हैं । ] प्रत्यक्षादि प्रमाण के विषयभूत, विरुद्ध-धर्माध्यास लक्षण अविरुद्ध ही वस्तु होती है ऐसा अर्थ सिद्ध है । अपने सिर को अपने हाथ से ताडित करके पूत्कार करते हुये - चिल्लाते हुये पुरुष को भी प्रत्येक वस्तु तत् अतत् रूप ही प्रतीति में आती है । क्योंकि प्रत्यक्षादि से उसी प्रकार का अनुभव आ रहा है कहा भी है Jain Education International श्लोकार्थ - विरुद्ध धर्माध्यास लक्षण होकर भी तत् और अतत् रूप ज्ञान ही सम्यक् प्रकार से सिद्ध है यदि स्वयं अर्थों को यही रुचता है तो वहाँ हम क्या कर सकते हैं ? ॥१॥ और इस प्रकार से वही है' इस विधि रूप को एकांत रूप से प्रतिपादन करती हुयी वाणी 1 स्त्रपररूपादिचतुष्टयेन सदसद्रूपं वस्तु ईप् । दि० प्र० । 2 विधिप्रतिषेधरूपा । ब्या० प्र० । 3 ततश्च । ब्या० प्र० । 4 मृषारूपवाक्यैः । ब्या० प्र० । 5 ग्राह्यम् । दि० प्र० । 6 सदसदादिविरुद्धधर्माध्यास एव लक्षणं यस्य । दि० प्र० । 7 बसः । दि० प्र० । ग्राहकम् बसः । व्या प्र० । 8 स्याद्वादिनः । दि० प्र० 9 विरुद्धधर्माध्यास लक्षणं वस्तु । ब्या० प्र० । तच्च तदतद्रूपं विधिप्रतिषेधात्मकं वस्तुस्वभावेन प्रवर्तते । तादृशं वस्तु तदेव विध्यात्मकमेवेत्येकान्तेन कथयन्ती परवादिनां वाणी असत्या एव कुतो घटादिवस्तुनः सत्त्वप्रतिपादन इष्टस्याविवक्षितघटादिलक्षणपररूपाभावस्याप्रतिपादनात् । अथवा तस्य पररूपाभावस्य प्रतिपादने विध्येकान्तो विरुद्धयते । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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