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अष्टसहस्री
[ द. प० कारिका ११२
'सामान्यवाग् 'विशेषे 'चेन्न शब्दार्थो 'मृषा हि सा । अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः "सत्यलाञ्छनः ॥ ११२ ॥
[ स्यात्कार एव सत्य लाञ्छनः सिद्ध्यति । ] ___ अस्तीति सत्सामान्यवान् केवलमभावविच्छेदाद विशेषमपोहमाहेति चेत्, कः पुनरपोहः ? किमन्यव्यावृत्तिरुत तथा विकल्पः ? परतो व्यावृत्तिरभावोन्यापोह इष्यते इति चेत्, कथमेवं सत्यभावं प्रतिपादयति ? भावं न प्रतिपादयतीत्यनुक्तसमं न स्यात् । "तद्विकल्पोन्यापोहोस्तु
ये सामान्य वचन ही कहते, अन्यापोह विशेषार्थक । ऐसा कथन असंगत, चूंकि ये वच नहिं शब्दार्थ कथक ।। अतः वचन ये मषा, परन्तु जो अभिप्रेत विशेषारथ ।
प्राप्त कराने हेतु ऐसा "स्यात्कार" है चिन्ह सुतथ्य ॥११२॥ कारिकार्थ-सामान्य वचन विशेष का कथन नहीं करते हैं फिर भी यदि आप मान लेंवे तब तो शब्दार्थ असत्य ही हो जायेंगे । अतएव अभिप्रेत विशेष की प्राप्ति के लिये सत्य लाञ्छन वाला स्यात्कार पद ही है ॥११२।।
[ स्यात्कार ही सत्यलाञ्छन सिद्ध होता है । ] बौद्ध-"अस्ति" इस प्रकार के सत्सामान्य वाले वचन केवल अभाव के विच्छेद से विशेष अपोह को ही कहते हैं।
जैन-यदि ऐसी बात है तब तो यह बताइये कि वह अपोह क्या बला है ? क्या वह अन्य की व्यावृत्ति रूप है अथवा उस प्रकार से विकल्प रूप है ?
बौद्ध-पर से व्यावृत्ति का होना अर्थात् अभाव का होना ही अन्यापोह है ऐसा हम मानते हैं।
जैन-तब तो 'अस्ति' इस प्रकार के सत्सामान्य वचन अपने सत्यभाव-अर्थ को कैसे प्रतिपादित करेंगे? यदि आप कहें कि अपने सत्य भाव का प्रतिपादन नहीं करते हैं तो पुनः वे वचन अनुक्त - नहीं कहे हुये के समान ही क्यों नहीं हो जायेंगे ?
1 सौगताभ्युपगता घटोस्तीति सत्सामान्यवाक् विशेषेोहे वर्तते चेत्तदा लोके कश्चिच्छब्दार्थों न । अन्यापोहे प्रवर्तमाना सामान्यवाक् मृर्षब स्यात्स्वरूपेण भावः पररूपेणाभाव इति स्याद्वादस्सत्यो भवति कुतोभीष्टविशेषप्रापणात दि० प्र० 1 2 अन्यापोहे । दि० प्र०। 3 शब्दार्थो न सिद्धयतीत्यर्थः । दि० प्र०। 4 ततश्च । दि० प्र०। : तत्र दुषणम् । दि० प्र०। 6 अस्तीति वाक्यम् । दि० प्र० । 7 ता। दि० प्र० । 8 तत्र दूषणम् । ब्या० प्र० । 9 कुतः । इति पा० । दि० प्र० । 10 सौगतवचनम् । दि० प्र०। 11 अभावं प्रतिपादयति भावं न प्रतिपादयतीति विकल्पः स चासो विकल्पस्तद्विकल्पः । दि० प्र०।
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