Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 632
________________ प्रमाण का फल - स्याद्वाद का अर्थ तृतीय भाग [ ५५३ यदि आप जबरदस्ती ही स्मृति को इनमें अंतर्भूत करोगे तो अनुमान भी इन्हीं में अंतर्भूत हो जावेगा एवं आगमादि भी नहीं रह सकेंगे क्योंकि शब्दादिकों की स्मृति बिना आगम आदि प्रमाण भी कैसे टिकेंगे । इसलिये स्मृति प्रमाण एक भिन्न प्रमाण है । ] प्रत्यभिज्ञान - "यह वही है ।" इस प्रकार के जोड़ रूपज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । तथैव "प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है क्योंकि पदार्थ का निश्चय देखा जाता है प्रत्यक्षादि के समान ।" यह वही है, यह उसके सदृश है इत्यादि रूप से एकत्व, सादृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान अबाधित हैं, संशयादि के व्यवच्छेदक हैं, किन्तु जो बाधित हो वह प्रत्यभिज्ञानाभास है अतः प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है क्योंकि तत्त्वज्ञान रूप है । उसी प्रकार से साध्य - साधन के सम्बन्ध का ज्ञान रूप तर्कज्ञान भी प्रमाण है क्योंकि अनिश्चितको निश्चय करता है । इस व्याप्ति के ज्ञान को प्रत्यक्ष, अनुमानागम आदि ग्रहण करने में समर्थ नहीं हैं | आप बौद्ध कहें कि -- यह तर्कज्ञान गृहीत को ग्रहण करने वाला है अतः अप्रमाण है सो कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि यह तर्क भी कथंचित् अपूर्वार्थ को विषय करने वाला है। अतः प्रमाण है । प्रत्यक्ष और अनुमान तो संनिहित विषय को ग्रहण करते हैं वे दोनों अविचारक हैं। विचार तो अनेक ज्ञान को विषय करने वाले तर्क प्रमाण से हो साध्य है । मीमांसक कहें कि अर्थापत्ति से अविनाभाव का निश्चय हो जावेगा सो ठीक नहीं, क्योंकि प्रश्न यह होगा कि अर्थापत्ति सम्बन्ध ज्ञानपूर्वक है या बिना सम्बन्ध ज्ञान के है ? यदि प्रथम पक्ष लेवें तो अनवस्था आ जावेगी, द्वितीय पक्ष में स्वयं अनिश्चित-अन्यथा भवन नहीं होने पर भी अर्थापत्ति की उत्पत्ति हो जावेगी । तथैव उपमान आदि से भी अविनाभाव का ज्ञान असम्भव है । इसलिये आगम, उपमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाण परोक्ष प्रमाण में अंतर्भूत हो जाते हैं । "मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलं " सूत्र के अनुसार ज्ञानावरण दर्शनावरण का एक साथ नाश होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् प्रकट होने से केवली भगवान् युगपत् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। यदि आप सर्वज्ञ में दर्शन और ज्ञान को क्रम से मानोगे तो दर्शन के समय में ज्ञान एवं ज्ञान के समय में दर्शन का अभाव होने से सर्वज्ञ भगवान नित्य ही सर्वज्ञ सर्वदर्शी नहीं रहेंगे । तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन सादि और अनन्त हैं । जो मति श्रुत आदि ज्ञान क्रमवर्ती हैं वे भी प्रमाण हैं । एवं " तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः " इस सूत्र के अनुसार एक जीव में एक साथ जो चार ज्ञान माने हैं वे केवल लब्धि रूप से ही हैं विषयों को जानने की अपेक्षा से नहीं हैं क्योंकि उपयोग तो एक ज्ञान का एक काल में एक विषय में ही होता है किन्तु छद्मस्थ के ज्ञान और दर्शन क्रमवर्ती हैं। हम जैनों ने भी चक्षु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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