Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 631
________________ ५५२ अष्टसहस्री [ द० प० कारिका १०२ शंका-यदि आप तत्त्वज्ञान को सर्वथा प्रमाण मानोगे तो अनेकांत का विरोध हो जावेगा। समाधान-ऐसा नहीं कहना क्योंकि बुद्धि से अनेकांत सिद्ध है अर्थात् बुद्धि प्रमाण ही है ऐसा नियम नहीं है । असद् बुद्धि भी तो बुद्धि ही है । "जिस आकार से तत्त्व का ज्ञान होता है उस अपेक्षा से ही बुद्धि प्रमाण है" इस कथन से प्रमाण और प्रमाणाभास भी कथंचित् प्रमाणता और अप्रमाणता की मिश्रणावस्था रूप हैं। जैसे-द्विचंद्रादि मिथ्याज्ञान में संख्या के प्रकार वाला जो ज्ञानांश है वह अप्रमाण है तथा जो चन्द्र का ज्ञान है, प्रमाण है अतः एक ही अप्रमाण ज्ञान में प्रमाणता और अप्रमाणता दोनों बातें सिद्ध हो गईं । तथैव प्रमाण भी प्रमाणता अप्रमाणता रूप है, निर्दोष नेत्र वाले मनुष्य का चन्द्रसूर्योदय ज्ञान सर्वथा अविसंवादी इसलिये नहीं है कि उन्हें धरती से लगा हुआ समझ रहा है । इस प्रकार से प्रमाण और अप्रमाण अनेकांतरू प हैं। शंका-इस प्रकार से तो किसी को प्रमाण और किसी को अप्रमाण नाम ही नहीं रहेगा। समाधान नहीं । संवाद की प्रकर्षता से ही प्रमाण की व्यवस्था है और विसंवाद की प्रकर्षता से अप्रमाण की व्यवस्था है जैसे कस्तूरी, चंदन, कर्पूर आदि में स्पर्श, रस, वर्ण होने पर भी गन्ध गुण की प्रकर्षता होने से ये गन्ध द्रव्य कहे जाते हैं उसी प्रकार से अनुमान प्रमाण आदि भी कथंचित् मिथ्या प्रतिभास के होने पर भी तत्त्व ज्ञान कराने से ही प्रमाण हैं एवं अतत्त्वज्ञान से ही अप्रमाण हैं ऐसी व्यवस्था होने से अनेकांत भी सिद्ध है। आप बौद्ध के यहाँ प्रत्यक्ष तो निर्विकल्प होने से परोक्ष रूप ही हो गया तथा विकल्प ज्ञान वस्तु को ग्रहण ही नहीं करता है पुनः तत्त्व का ज्ञान किससे होगा ? इसलिये "प्रमाण ही तत्त्वज्ञान रूप है" ऐसा अवधारण करना चाहिये क्योंकि फल ज्ञान भी अपने अव्यवहित फल की अपेक्षा से प्रमाण रूप है अतः स्वलक्षण दर्शन के अनन्तर होने वाला सविकल्प ज्ञान भी प्रमाण हो जाता है पुनः “प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं" यह संख्या समाप्त हो जाती है। स्मृति–'वह' इस आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं। तथैव "स्मृति भी प्रमाण है क्योंकि वह ज्ञान विशेष को उत्पन्न करने वाली है" यदि आप बौद्ध सर्वथा स्मृति को अप्रमाण मानोगे तो अनुमान भी उत्पन्न नहीं हो सकेगा क्योंकि अविनाभाव सम्बन्ध की स्मृति भी अप्रमाण ही रहेगी अतः स्मृति का उपयोग विशेष होने से वह प्रमाण है क्योंकि अनुमान ज्ञान के समान वह भी अविसंवादिनी है । तथैव सांख्य ने तीन प्रमाण माने हैं, नैयायिक ने चार प्रमाण, प्राभाकर ने पांच, जैमिनी ने छह माने हैं। यह स्मृति प्रमाण इन सबके मान्य प्रमाण संख्या को समाप्त कर देती है क्योंकि स्मृति को आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन किसी में भी अंतर्भूत नहीं कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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