Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 640
________________ स्याद्वाद का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५६१ त्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोनेकान्तः, 'स च दृष्टेष्टाविरुद्ध इत्युक्तं प्राक् । 'तत्र क्वचित्प्रयुज्यमानः स्याच्छब्दस्तद्विशेषणतया प्रकृतार्थतत्त्वमवयवेन सूचयति, प्रायशो निपातानां तत्स्वभावत्वादेवकारादिवत् । द्योतकाश्च भवन्ति निपाता इति वचनात् स्याच्छब्दस्यानेकान्तद्योतकत्वेपि न कश्चिद्दोष, 'सामान्योपक्रमे विशेषाभिधानमिति न्यायाज्जीवादिपदोपादानस्याप्यविरोधात् स्याच्छब्दमात्रयोगादनेकान्तसामान्यप्रतिपत्तेरेव सम्भवात् । सूचकत्वपक्षे तु गम्यमर्थरूपं प्रति विशेषणं स्याच्छब्दस्तस्य विशेषकत्वात् । न हि 1 केवलज्ञानवदखिलमक्रममवगाहते11 12किंचिद्वाक्यं, येन तदभिधेयविशेषरूपसूचक:14 स्यादिति अनेकांत है । और यह प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रमाणों से अविरुद्ध है, ऐसा पहले "त्वन्यतामृत बाह्यानां सर्वथैकांत वादिनां" इत्यादि कारिका लक्षण में कह दिया है । उनमें कही पर भी प्रयुक्त किया गया यह 'स्यात' शब्द उसके विशेषण रूप से प्रकृत के वास्तविक अर्थ को अवयव रूप से सूचित करता है क्योंकि प्रायः करके निपात शब्द अपने अर्थ को सूचित करने के स्वभाव वाले ही होते हैं । एवकारादि शब्दों के समान । वे निपात शब्द केवल वाचक ही नहीं होते हैं किन्तु द्योतक भी होते हैं। "द्योतकाश्च भवंति निपाताः" ऐसा वचम पाया जाता है। अतः स्यात शब्द को अनेकांत का द्योतक स्वीकार करने पर भी कोई दोष नहीं आता है। क्योंकि स्यात शब्द के द्वारा सामान्य को ग्रहण करने पर जीवादि पद से विशेष का कथन हो ही जाता है। ऐसा न्याय है। अत: जीवादि पदों का उपादान करना भी अविरुद्ध है। 'स्यात्' शब्द मात्र के प्रयोग से तो अनेकांत सामान्य का ही ज्ञान होना संभव है। सूचक पक्ष में तो गम्य-अर्थ के प्रति स्यात् शब्द विशेषण है, क्योंकि वह विशेषक हैविशेष अर्थ को सूचित करता है। अर्थात् 'स्याज्जीवः' इत्यादि पद के कहने से उसका प्रतिपक्षी अजीव भी गम्य है। कोई भी वाक्य केवलज्ञान के समान युगपत अखिल अर्थ का अवगाहन-प्रकाशन नहीं करते 1 अनेकान्त । दि० प्र.। 2 प्रत्यक्षानुमान । दि० प्र० । 3 अनेकान्तस्योक्तलक्षणे सति । दि० प्र० । 4 विवक्षितार्थ । विवक्षितार्थजीवादि । दि० प्र० । 5 प्रकृतार्थस्वरूपम् । ब्या० प्र० । 6 स्यादस्त्येव जीव इत्यत्र स्याच्छब्दः जीवस्थ विवक्षितमस्त्वर्थ विशेषणतयकांशं सूचयत्यन्यानविवक्षितांशान् नास्त्यादिकान् द्योतयतीति तत्स्वभावत्वात् यथवकारः । दि० प्र०। 7 सामान्यस्यानेकान्तस्योपक्रमे कथने । ब्या० प्र०। 8 एवं न्यायेप्यविरोधः कूत इत्याह । ब्या० प्र०। 9 न जीवाजीवादिविशेषानेकान्तस्य । दि० प्र०। 10 यथा केवलज्ञानं सकलमर्थं युगपदवगाहते तथा किञ्चिद्वाक्यं नहि स्यादिति शब्द: विवक्षितवस्तुनोऽशेषस्वरूपप्रतिपादको भवतीति येन केन न प्रयुज्यते । अपितु प्रयुज्यत एव । दि० प्र०। 11 युगपत् । दि० प्र०। 12 जीव इत्यादिशक्यम् । ब्या० प्र०। 13 तदभिधेयाशेष इति पा० । दि० प्र०, ब्या० प्र० । तासः । दि० प्र०। 14 अजीवत्वादि । ज्या०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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