Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 638
________________ तृतीय भाग पद का लक्षण ] [ ५५६ 'यत्सत्तत्सर्व परिणामि, यथा घटः, संश्च शब्द इति साधनवाक्यं तस्मात्परिणामीत्याकाङ्क्षणात्, साकाङ्क्षस्य वाक्यत्वानिष्टेरिति न शङ्कनीयं, 'कस्यचित्प्रतिपत्तुस्तदनाकाङ्क्षत्वोपपत्तेः । निराकाङ्क्षत्वं हि नाम प्रतिपत्तुर्धर्मोयं वाक्येष्वध्यारोप्यते, न पुनः शब्दस्य धर्मस्तस्याचेतनत्वात् । स चेत् प्रतिपत्ता 'तावतार्थं प्रत्येति, किमिति 'शेषमाकाङ्क्षति ? पक्षध र्मोपसंहारपर्यन्तसाधन वाक्यादर्थप्रतिपत्तावपि निगमनवचनापेक्षायां निगमनान्तपञ्चावयववाक्यादप्यर्थप्रतिपत्तौ 'साधनावयवान्तरवचनापेक्षाप्रसङ्गात् । इति न क्वचिनिराकाङ्क्षत्वसिद्धिः । तथा च वाक्याभावान वाक्यार्थप्रतिपत्तिः कस्यचित्स्यात् । ततो यस्य प्रतिपत्तुर्यावत्सु परस्परापेक्षपदेषु समुदितेषु निराकाङ्क्षत्वं तस्य तावत्सु वाक्यत्वसिद्धिरिति सर्व और शब्द सत् रूप हैं, यह साधन वाक्य हैं, इसीलिये परिणामी हैं वह इस प्रकार से आकांक्षा करता है।" और आप जैनों ने तो साकांक्ष को वाक्य नहीं माना है। जैन-आपको ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि कोई ज्ञाता उस निगमन की आकांक्षा नहीं भी करते हैं । “निराकांक्षा यह प्रतिपत्ता का धर्म है वाक्यों में तो उसका अध्यारोप किया जाता है।" किन्तु वह निराकांक्ष शब्द का धर्म नहीं है। क्योंकि शब्द तो अचेतन हैं। यदि वह है तो प्रतिपत्ता पुरुष उतने मात्र से (साधन मात्र से) अर्थ को निश्चय कर लेता है। पुनः क्योंकर वह शेष-निगमन की आकांक्षा करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा। पक्ष धर्म के उपसंहार पर्यंत साधन वाक्य से अर्थ का ज्ञान हो जाने पर भी यदि निगमन वचन की अपेक्षा है तब तो निगमन के अन्त पर्यंत पंचावयव वाक्य से भी अर्थ का ज्ञान हो जाने पर साधन के अवयवांतर वचनों की अपेक्षा का प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् 'यह पर्वत अग्नि वाला है। क्योंकि धूम वाला है" इत्यादि से अर्थ का निश्चय हो जाने पर भी पर्वत, अग्निजन्मा है, इत्यादि अवयवांतरों की अपेक्षा होती ही चली जायेगी । कभी उपरम ही नहीं हो सकेगा। पुनः इस प्रकार से तो कहीं पर भी निराकांक्षत्व की सिद्धि ही नहीं हो सकेगी। इस प्रकार से वाक्य का अभाव हो जाने से किसी को भी वाक्य के अर्थ का ज्ञान भी नहीं हो सकेगा। इसलिये जिस प्रतिपत्ता-पुरुष को जितने परस्परापेक्ष समुदित पदों में निराकांक्षत्व है, उसको उतने में वाक्यत्व की सिद्धि है । इस प्रकार से सभी सुव्यवस्थित हैं। 1 सत्त्वात् । दि० प्र०। 2 पुंसः । दि० प्र०। 3 पक्षोपसंहारलक्षणोपनयवाक्यमात्रेण । तस्मात्परिणामीति । दि० प्र०। 4 किमित्याकांक्षति न तमाकांक्षतीत्यर्थः। दि० प्र०। 5 ता हेतुः । ब्या० प्र० । उपनयवत् । दि०प्र०। 6 अनुमानवाक्यात् । ब्या० प्र०। । भनुमानवाक्यस्य । दि० प्र० । 8 अन्यपञ्चावयवानाम् । दि० प्र०। 9 हेतोः । ब्या० प्र०। 10 वाक्ये । ब्या० प्र०। 11 साकांक्षत्वे । निराकांक्षत्वसिद्ध्यभावे च । दि० प्र० । 12 परिज्ञानम् । दि० प्र० । 13 न स्याद्यतः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688