Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 639
________________ ५६० ] अष्टसहस्री [ द०प० कारिका १०३ सुस्थम् । 'प्रकरणादिना वाक्यकल्पेनाप्यर्थप्रतिपत्तौ नवा प्राथमकल्पिकवाक्यलक्षणपरिहारः, 'प्रकरणादिगम्यपदान्तरसापेक्षश्रूयमाणपदसमुदायस्य' निराकाङ्क्षस्य सत्यभामादिपदवद् वाक्यत्वसिद्धेः । तदेवं लक्षणेषु वाक्येषु स्यादिति शब्दोनेकान्तद्योती प्रतिपत्तव्यो, न पुनविधिविचारप्रश्नादिद्योती, तथाविवक्षापायात् । कः पुनरनेकान्त इति चेदिमे ब्रूमहे । सदसन्नि __अथवा वाक्य सदृश प्रकरण आदि से भी अर्थ का ज्ञान हो जाने पर प्रथम कल्पिक-प्रथम कहे हुये वाक्य के लक्षणों का परिहार नहीं होता है। प्रकरण आदि से जानने योग्य, पदान्तर सापेक्ष, सुने गये निराकांक्ष, पद समुदाय वाक्य रूप से सिद्ध हैं, जैसे सत्यभामा आदि पद। भावार्थ-भोजन के समय में किसी ने कहा कि "सैंधवमानय" तो प्रकरण से नमक ही लाया जाता है न कि घोड़ा । इसलिये "परस्पर सापेक्ष" इत्यादि रूप से जो हमने वाक्य का लक्षण किया है उसका परिहार नहीं किया जा सकता है। अपूर्ण भी वाक्य से प्रकरण आदि से अर्थ का ज्ञान हो जाता है। जैसे—'सत्या' इत्यादि एक देश के श्रवण करने से भी प्रकरण आदि में सत्यभामा का ज्ञान हो जाता है । उसी प्रकार से अन्यत्र भी वाक्य सदृश किंचित् वाक्य के उच्चारण से भी अर्थ का ज्ञान हो जाता है। अतएव अर्थ प्रतिपादन लक्षण धर्म जैसे पूर्व लक्षित वाक्य में है तथैव इस प्रकरण आदि में भी है, इसलिये इन वाक्यों को भी पहले के सदृश ही मानना चाहिये । क्योंकि अर्थ का ज्ञान हो जाना दोनों जगह सदृश ही है। इसलिये उपर्युक्त लक्षण वाले वाक्यों में 'स्यात्' यह शब्द अनेकांत को प्रगट करने वाला समझना चाहिये । किन्तु विधि, विचार और प्रश्नादिकों का द्योतक नहीं समझना चाहिये। क्योंकि उस प्रकार की विवक्षा नहीं है। अर्थात् यहाँ विधि आदि शब्द से विधि अर्थ वाचक लिङ्लकार लेना चाहिये, विधि आदि अर्थ में लिङ्लकार में अस् धातु से जो 'स्यात्' पद सिद्ध होता है यह स्यात् शब्द वह नहीं है । किन्तु यह 'स्यात्' शब्द निपातसिद्ध होने से अनेकांत के अर्थ का द्योतक है। . प्रश्न--अनेकांत किसे कहते हैं ? उत्तर-सत, असत, नित्य, अनित्य आदि रूप सर्वथा एकांत का निराकरण करने वाला यह 1 प्रकरणादिगम्यपादान्त राभावात् श्रूयमाणपदसमुदायस्यैव वाक्यकल्पत्वं तेन चार्थप्रतिपत्तिप्रकरणादिना भवति तत्सामाद्भवतीत्यर्थः अधिकारादिना प्रस्तावः । दि० प्र०। 2 भोजन समये सैधवमानयेत्युक्ते यथा लवणमानीयते नत्वश्वः । ब्या० प्र०। 3 अर्थप्रतिपत्तितया सदृशेन । ब्या० प्र० । 4 निषेधे । दि० प्र.। 5 मुख्य । ब्या० प्र० । 6 यसः । ब्या० प्र०। 7 पश्वादिपद । इ० प्र० । व्या० प्र०। 8 यथा सत्यभामेति पदस्य वाक्यत्वं सिद्धयति कथं । सत्यभामेत्युक्ते भारतीयकथाश्रवणव्याख्यानलक्षणप्रस्तावादिना त्रिषण्डाधीश्वरस्य नारायणस्य पट्टमहिषी राज्ञी अन्त.पुरे राज इति वाक्यं सिद्धम् । दि० प्र० । 9 तस्मात् । उक्तप्रकारलक्षणेषु । ब्या० प्र०। 10 प्रस्तावद्योती। इति पा० दि० प्र० । स्यादिति शब्दः विधौ सप्तमीति कातन्त्रापेक्षया भवेदिति आख्यातपदार्थद्योतको नास्ति कुतः तादृक्विवक्षाभावात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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