Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 645
________________ ५६६ ] अष्टसहस्त्री [ द० प० कारिका १०५ भेदेनापि भेदात् । शुद्धतमयैवंभूतस्तस्य क्रियाभेदेनापि भेदात् । इति मूलनयद्वयशुद्ध्यशुद्धिभ्यां बहुविकल्पा नया नयचक्रतः प्रतिपत्तव्याः पूर्वपूर्वा महाविषया उत्तरोत्तरा अल्पविषयाः 'शब्दविकल्पपरिमाणाश्च । तदेवं व्याख्यातः सप्तभङ्गनयापेक्षः स्याद्वादो हेयादेयविशेषकः प्रसिद्धस्तमन्तरेण हेयस्योपादेयस्य च विशेषेण व्यवस्थानुपपत्तेः । सर्वतत्त्वप्रकाशकश्च केवलज्ञानवत् । एतदेव दर्शयति, - स्याद्वाद केवलज्ञाने 'सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः 'साक्षादसाक्षाच्च' 'ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५ ॥ पर्यायार्थिकनय की शुद्धतम से एवंभूत नय होता है वह क्रिया के भेद से भी वस्तु में भेद को कर देता है । इस प्रकार से मूल में दो नय हैं वे शुद्धि और अशुद्धि के निमित्त से बहुत भेदरूप हो जाते हैं । उन सबका लक्षण "नयचक्र" नामक शास्त्र से जान लेना चाहिये । ये सातों ही नय पूर्वपूर्व में महा विषय वाले हैं, एवं उत्तरोत्तर अल्प विषय वाले हैं । एवं जितने शब्द हैं उतने ही विकल्प भेद हो जाते हैं । इस प्रकार कहा गया स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखने वाला, एवं हेय, उपादेय भेद को करने वाला प्रसिद्ध है, क्योंकि इस स्याद्वाद के बिना हेय, उपादेय की विशेष रूप से व्यवस्था होना शक्य नहीं है । एवं यह स्याद्वाद सभी तत्त्वों को प्रकाशित करने वाला है, केवलज्ञान समान । उत्थानिका - उसीको अगली कारिका से स्पष्ट करते हैं स्याद्वाद कैवल्यज्ञान ये, सभी तत्त्व के परकाशक । स्याद्वाद सब परोक्ष जाने, केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रकट || अंतर इतना ही इन दोनों में परोक्ष प्रत्यक्ष कहा । इन दोनों से नहीं प्रकाशित, अर्थ अवस्तूरूप हुआ ।। १०५ ।। कारिकार्थ- - स्याद्वाद और केवलज्ञान ये दोनों ही संपूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं। इन दोनों में अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात् सम्पूर्ण तत्त्वों का प्रकाशक है एवं स्याद्वाद असाक्षात् परोक्ष रूप से प्रकाशक है, क्योंकि इन दोनों के बिना प्रकाशित वस्तु अवस्तु रूप ही ।। १०५ ।। Jain Education International 1 जावदिया वयणविहा तावदिया होंति णयवादा | जावदिया गयवादा तावदिया होंति परवादा || दि० प्र० । 2 प्रकाशके । दि० प्र० । 3 केवलज्ञानम् । दि० प्र० । 4 परम्परया मत्यादि । व्या० प्र० । 5 यत्स्याद्वाद केवलज्ञानाभ्यामगम्यं तदश्वविषाणादिवत् वस्त्वेव न भवति कस्मात्तस्याः प्रतीयमानत्वात् । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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