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अष्टसहस्री
[ द० प० कारिका १०५ ८.६.१०. एवं आद्यपद, अन्त्यपद अथवा मध्यपद यदि पदांतर की अपेक्षा रखते हैं तो वाक्य हैं, अन्यथा नहीं हैं। इस प्रकार दस प्रकार से वाक्य के लक्षण का विचार किया गया है। किन्तु
म लक्षण यही है कि "पदांतरगत वर्गों से निरपेक्ष, परस्परापेक्ष वर्गों के समुदाय को वाक्य कहते हैं । और परस्परापेक्ष पदों का निरपेक्ष समुदाय वाक्य है।
__ भोजन के समय किसी ने कहा "सैंधवमानय" तो प्रकरण से नमक ही लाया जाता है न कि घोड़ा। अत: परस्पर सापेक्ष विशेषण ठीक ही है। यदि अपूर्ण भी वाक्य से प्रकरण आदि से अर्थ का ज्ञान हो जावे तो वह भी वाक्य है जैसे 'सत्या' कहने से "सत्यभामा" का ज्ञान हो जाता है। अतः यहां 'स्यात्' यह पद अनेकांत का द्योतक है। 'अस्' धातु से विधिलकार में स्यात् सिद्ध हुआ पद नहीं है ।
सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि रूप सर्वथा एकांत का निराकरण करने वाला अनेकांत है। "स्याज्जीवः" इस पद के कहने से उसका प्रतिपक्षी अजीव भी जान लिया जाता है। सर्वथा एकांत के त्याग से ही स्याद्वाद होता है, कथंचित् आदि शब्द इसी के पर्यायवाची हैं ये सप्तभंगों की अपेक्षा करके स्वभाव, परभाव के द्वारा वस्तु के सत्-असत् आदि की व्यवस्था करते हैं।
यह स्याद्वाद सभी तत्त्वों को केवलज्ञान के समान प्रकाशित करता है। स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करते हैं अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करता है, एवं स्याद्वाद असाक्षात् परोक्ष रूप से प्रकाशक है। स्याद्वाद अर्थात् आगम भी परोक्ष रूप से सभी वस्तुओं का ज्ञान करा देता है।
पूर्व के सर्वज्ञ से प्रकाशित आगम से उत्तर सर्वज्ञ में केवलज्ञान उत्पन्न होता है और उन सर्वज्ञ से उत्तर काल में आगम का प्रकाश होता है यह सर्वज्ञ और आगम की परम्परा अनादि है।
शंका-'मतिश्रुतयोनिबंधोद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" इस सूत्र से श्रुतज्ञान का विषय असर्व पर्याय है पुनः सर्व तत्त्व प्रकाश करना कैसे कहा ?
समाधान-सर्व तत्त्व प्रकाश ने यह विशेषण पर्याय की अपेक्षा से नहीं लेना मात्र सामान्य से मात्र सात तत्त्व पदार्थ आदि को ही लेना चाहिये।
इस प्रकार से स्याद्वाद नय से संस्कृत तत्त्वज्ञान प्रमाण नय से संस्कृत है । एवं सप्तभंगी विधि रूप स्याद्वाद प्रमाण रूप है तथा नैगमादि नय कहलाते हैं । अथवा अहेतुवाद आगम स्याद्वाद है और हेतुवाद आगम नय है इन दोनों से संस्कृत-अलंकृत तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है।
सार का सार-स्यात् शब्द अनेकांत को प्रगट करने वाला है यह जैन धर्म का प्राण है। नयों का लक्षण भी अच्छे ढग से किया गया है। स्याद्वाद और नयों से जानी गई वस्तु ही सत्य है।
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