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अष्टसहस्री
[ द० प० कारिका १०६ देवाविरोधेन हेतोः साध्यप्रकाशनत्वोपपत्तेः । 'अत्र ' सपक्षेणैव साध्यस्य साधर्म्यादि'त्यनेन हेतोस्त्रलक्षण्य' मविरोधादि 'त्यन्यथानुपपत्ति च दर्शयता, केवलस्य त्रिलक्षणस्यासाधनत्वमुक्तं तत्पुत्रत्वादिवत् । एकलक्षणस्य तु गमकत्वं, '2 नित्यत्वेकान्तपक्षेपि विक्रिया नोपपद्यते ' इति बहुलमन्यथानुपपत्तेरेव समाश्रयणात् । नन्वत्र संक्षेपात् तथाभिधानेपि त्रैलक्षण्यं शक्यमुपदर्शयितुं पञ्चावयववत् । सत्यमेतत् केवलं यत्रार्थक्रिया न संभवति तन्न वस्तुतत्त्वं, यथा 'विनाशैकान्तः । तथा च नित्यत्वेपि क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रिया न संभवति, नापरं प्रकारान्तरमिति, त्रिलक्षणयोगेपि प्रधानमेकलक्षणं', तत्रैव साधनसामर्थ्यपरिनिष्ठितेः ।
वह साध्य धर्म का अधिकरण धर्मी, परमागम से प्रविभक्त अर्थ विशेष, शक्य, अभिप्रेत एवं अप्रसिद्ध है ऐसे साध्य का विवाद के विषयभूत होने से व्यञ्जक है किन्तु विपक्ष के साथ साधर्म्य से व्यञ्जक नहीं है, वैधर्म्य से ही उस अविरोध-साध्य के साथ अविनाभावी रूप से ही हेतु अपने साध्य का प्रकाशन करने वाला होता है ।
यहाँ "सधर्मसाध्यसाधर्म्यादि" इस कारिका के अंश से हेतु तीन लक्षण वाला है । "अविरोधात् " इस प्रकार के पद से हेतु अन्यथानुपपत्ति वाला है। इस प्रकार हेतु के त्रिलक्षण और अन्यथानुपपत्ति को दिखलाते हुये श्री समंतभद्र स्वामी ने केवल त्रिलक्षण हेतु को अहेतु कहा है। जैसे - तत्पुत्रत्वादि हेतु सच्चे हेतु नहीं हैं । किन्तु अन्यथानुप (न्नत्वमात्र एक लक्षण के होने से ही वह हेतु साध्य का गमक माना गया है ।
" नित्यत्वकांत पक्षेऽपि विक्रियानोपपद्यते" इत्यादि कारिकाओं में बहुत जगह अन्यथानुपपत्ति का ही सम्यक् प्रकार से आश्रय लिया है ।
शंका--यहाँ पर संक्षेप से अन्यथानुपपत्ति प्रकार से हेतु का कथन करने पर भी बौद्धाभिमत हेतु के तीन लक्षण को भी दिखलाना ठीक है । जैसे कि - नैयायिकाभिमत पंचावयव हेतु ही अनुमान
अंग है।
समाधान- आपका कथन ठीक है । जहाँ पर अर्थक्रिया सम्भव नहीं है वह वस्तु तत्त्व नहीं है । जैसे - विनाशैकांत-क्षणिकैकांत वस्तु नहीं है क्योंकि वहाँ पर अर्थक्रिया सम्भव नहीं है । उसी प्रकार से नित्यैकांत में भी क्रम या युगपत् से अर्थ क्रिया सम्भव नहीं है । एवं अर्थ क्रिया में क्रम अथवा युगपत् को छोड़कर अन्य कोई प्रकार है ही नहीं । इसलिये हेतु त्रिलक्षण का योग होने पर भी एक अन्यथानुपपत्ति लक्षण ही प्रधान है। क्योंकि उस एक लक्षण में ही साधन की सामर्थ्य परिसमाप्त है और वही अन्यथानुपपत्ति रूप अविनाभाव सम्बन्ध ही पूर्ववदादि, वीतादि,
1 कारिकायाम् । दि० प्र० । 2 प्रचुर । दि० प्र० । 3 अप्रतिपन्न शिष्यस्यानुरोधवशादन्यथानुपपन्नत्वस्यैव प्रपञ्चः यथा सर्वथा नित्यत्वं पक्षः वस्तुनो भवतीति साध्यो धर्मोर्थक्रियासंभवात् यथार्थक्रिया न संभवति तन्न वस्तु यथा सर्वथा विनाशत्वमर्थक्रियारहितञ्चेदं तस्मान्न वस्तु । दि० प्र० । 4 क्षणिकान्तः । दि० प्र० । 5 साध्याभावे साधनस्याप्यभाव इत्यन्यथानुपपन्नत्वमेव सकल हेतुलक्षणेषु प्रधानम् । दि० प्र० । 6 अविनाभाव | दि० प्र० ।
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