Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 646
________________ स्याद्वाद का लक्षण 1 तृतीय भाग [ स्याद्रादकेवलज्ञानयोः किमन्तरमिति स्पष्टयंति जैनाचार्याः । ] साक्षादसाक्षात् प्रतिभासिज्ञानाभ्यामन्यस्याप्रतीतेरवस्तुत्वप्रसिद्धेः, इत्यर्थः । स्याद्वादकेवलज्ञाने इति निर्देशात् 'तयोरभ्याहतत्वानियमं दर्शयति, परस्परहेतुकत्वात् । नचैवमन्योन्याश्रयः पूर्वसर्वज्ञद्योतितादागमादुत्तरसर्वज्ञस्य केवलोत्पत्तेः ततोप्युत्तरकालमाद्योतनात् सर्वज्ञागमसन्तानस्यानादित्वात् । केवलज्ञानस्याभ्यर्हितत्वे वा पूर्वनिपाते व्यभिचारं सूचयति, 'शिष्योपाध्यायादिवत् । ततोनवद्यो निर्देशः स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने इति । कथं पुनः स्याद्वाद्वः 'सर्वतत्त्वप्रकाशनः ? यावता 'मतिश्रुतयोनिबन्धो' द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु' इति [ ५६७ [ स्याद्वाद और केवलज्ञान में क्या अन्तर है ? इस बात को जैनाचार्य स्पष्ट करते हैं ।, साक्षात् एवं असाक्षात् - प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रतिभासी ज्ञान से भिन्न जो कुछ भी है वह प्रतीति में नहीं आने से अप्रतीत है वह अप्रतीत वस्तु अवस्तु रूप से प्रसिद्ध ही है । यह अर्थ होता है । 'स्याद्वाद केवलज्ञाने' कारिका में ऐसा पद होने से इन दोनों में कोई अर्ध्याहत है ऐसा नियम नहीं समझना, क्योंकि ये दोनों परस्पर में एक-दूसरे के लिये हेतु हैं ।" इस प्रकार से इनमें अन्योन्याश्रय दोष आ जायेगा, ऐसा भी नहीं कहना, क्योंकि पूर्व के सर्वज्ञ से द्योतित - प्रकाशित आगम से उत्तर सर्वज्ञ को केवलज्ञान उत्पन्न होता है और उन सर्वज्ञ से उत्तर काल में आगम का प्रकाश होता है । इस प्रकार से सर्वज्ञ और आगम की परम्परा अनादि है । अथवा केवलज्ञान को अर्ध्याहित मानकर पूर्व में स्याद्वाद का निपात करने पर व्यभिचार सूचित होता है । जैसे "शिष्योपाध्याय" आदि शब्दों में व्यभिचार देखा जाता है । इसलिये कारिका में जो निर्देश है कि "स्याद्वादकेवलज्ञाने, सर्वतत्त्व प्रकाशने" निर्दोष ही है । शंका- "यह स्याद्वाद सभी तत्त्वों को प्रकाशन करने वाला कैसे हो सकता है ?" क्योंकि "मतिश्रुतयोनिबंधो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु" मति श्रुतज्ञान द्रव्य और उनकी कुछ-कुछ पर्यायों को ही विषय करता है । इस सूत्र से श्रुतज्ञान का विषय असर्व पर्याय माना गया है अर्थात् श्रुतज्ञान 1 अत्राह कश्चित्स्वमत वर्ती स्याद्वाद केवलज्ञानयोः मध्ये केवलज्ञानस्याभ्यर्हितत्वात्पूर्वनिपातो युज्यते इत्युक्ते स्याद्वाद्याह । द्वयोरप्यभ्यर्हितत्वमस्ति कस्मात्परस्परहेतुत्वात् कथं परस्परहेतुरित्युक्ते आह । पूर्वकाले सदागमात् स्याद्वादमभ्यस्या: भ्यस्य केवलज्ञानमुत्पादयन्ति । केवलज्ञानोत्पादे । सप्तभंग्यात्मकं स्याद्वादात्मं प्रकाशयन्ति केवलिनः इति परस्तर्हि तयोरन्योन्याश्रयनामादोष इति चेन्न कस्मात् । अनादिनिधनस्य स्याद्वादस्य केवलज्ञानेन प्रकाश्यत्वान्न च कार्यत्वात् । दि० प्र० । 2 पूज्यत्व | दि० प्र० । 3 पूर्वं सदागमादुत्तरं सर्वज्ञस्य केवलोत्पत्तेः । इति पा० । दि० प्र० । 4 यदाहतं तत्पूर्वं निपततीत्युक्ते व्यभिचार उपाध्यायस्याचितत्वेपि पूर्वनिपाताभावादिति । अल्पाच्तरमितिसूत्रेण शिष्यशब्दस्य पूर्वत्वम् । दि० प्र० । 5 स्याद्वादकेवलज्ञानयोर्मध्ये केवलज्ञानस्याभ्यर्हितत्वं चेत्तदा शिष्योपाध्याययोर्मध्ये शिष्यस्याभ्यर्हितत्वमस्तु तथा नास्ति लोके । दि० प्र० । 6 स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । इति पा० । दि० प्र० । 7 विषयनियमः । व्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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