Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 641
________________ अष्टसहस्री ५६२ ] [ द० प० कारिका १०४ न प्रयुज्यते 'वाचः क्रमवृत्तित्वात् तद्बुद्धेरपि तथाभावात् । ततस्तव भगवतः केवलिनामपि स्यान्निपातोभिमत एवार्थयोगित्वादन्यथानेकान्तार्थप्रतिपत्तेरयोगात् । ननु न कथंचिदित्यादिशब्दादपि भवत्येवानेकान्तार्थप्रतिपत्तिः ? सत्यं भवति, तस्य स्याद्वचनपर्यायत्वात् । तथा हि, स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥१०४॥ किमो वृत्तः किंवत्तः। स चासौ चिद्विधिश्चेति 'कथंचिदित्यादिः किंवत्तचिद्विधिः हैं। कि जिससे उनके वाच्य विशेष रूप का सूचक 'स्यात्' यह शब्द प्रयुक्त नहीं किया जाये, अर्थात् स्यात् शब्द का प्रयोग करना ही पड़ेगा। क्योंकि वचन तो क्रमवर्ती हैं, और वचनों के द्वारा होने बाला ज्ञान भी कमवर्ती ही है। इसलिये हे भगवान ! आपके यहां एवं केवली और श्रुत केवलियों के सिद्धांतानुसार भी "स्यात् निपात" इष्ट ही है। क्योंकि वह अर्थ सहित है। अन्यथा उससे अनेकांत के अर्थ का ज्ञान ही नहीं हो सकेगा। उत्थानिका- कोई कहता है कि 'कथंचित्' इत्यादि शब्दों से भी अनेकांत अर्थ का ज्ञान हो ही जाता है। इस पर आचार्य कहते हैं कि हां! आपका कहना सत्य है कथंचित शब्द से भी अनेकांत अर्थ का ज्ञान होता है फिर भी यह स्यात्शब्द स्यात् वचन का ही पर्यायवाची है। तथाहि सदा सर्वथैकांत त्याग से, स्याद्वाद है सुखकर ही। "स्यात्" कथंचित् और कथंचन, शब्दों से एकार्थ सही ।। सप्तभंग अरु सभी नयों की, सदा अपेक्षा रखता है। सभी वस्तु में हेय और, आदेय व्यवस्था करता है ।।१०४।। कारिकार्थ-सर्वथा एकांत के त्याग से ही स्याद्वाद होता है और कथंचित् आदि इसके पर्यायवाची ही हैं। यह सप्तभंग नयों की अपेक्षा रखने वाला है। और हेय उपादेय की विशेष व्यवस्था करने वाला है । ॥१०४।। __ 'किम्' शब्द से निष्पन्न हुआ 'कथं' शब्द है, और उसमें चित्' विधिचित् प्रत्यय प्रयुक्त होने से 'कथंचित्' हो ऐसा बन गया है । "कथंचित्" इत्यादि शब्द स्याद्वाद के पर्यावाची शब्द हैं। 1 जीवादिवाचः । ब्या०प्र०। 2 वारज्ञानस्यापि । दि० प्र०। 3 स्याच्छब्दस्य वाचकत्वसूचकत्वपक्षे न कश्चिद्दोषो यतः । दि० प्र०। 4 स्यादिति निपातस्य । दि० प्र० । 5 अर्थयौगित्वं यदि नास्ति । स्याच्छब्दाभावे । दि० प्र० । 6 मादिशब्देन केनचित् । दि० प्र०17 केनचिदित्यादि । ब्या० प्र०। 8 विदित्येतस्य विधिविधानम् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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