Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 634
________________ पद का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५५५ ननु च स्याद्वादनयसंस्कृतं तत्त्वज्ञानमित्युक्तं 'तद्वत् फलमपीति स एव तावत् स्याच्छब्दोभिधीयतामित्याह : 'वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं 'प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥१०३॥ [ अपरैः कल्पितं दशधा वाक्यस्य लक्षणं निराकृत्य निर्दोषवाक्यलक्षणं अवन्ति जैनाचार्याः । ] किं पुनर्वाक्यं नामेत्युच्यतां, 'तत्र विप्रतिपत्तेः । तदुक्तम्, (१) आख्यातशब्द: (२) संघातो, (३) जातिः संघातवतिनी। (४) एकोनवयवः शब्दः (५) क्रमो (६.---७) 'बुद्ध यनुसंहृती ॥१॥ (८) पदमाद्यं (६) पदं 10चान्त्यं (१०) पदं सापेक्षमित्यपि । वाक्यं उत्थानिका-स्याद्वाद नय से संस्कृत तत्त्वज्ञान है ऐसा आपने कह दिया है, तद्वत फल भी स्याद्वाद नय से संस्कृत है ऐसा भी सिद्ध किया है । अब स्यात् शब्द का ही वर्णन कीजिये, इस प्रकार से जिज्ञासा व्यक्त होने पर ही आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं। नाथ ! आपके या श्रुतकेबलि मुनियों के भी वाक्यों में। "स्यात्" शब्द है निपात चूंकि, अर्थ साथ सम्बन्धित है । इसीलिये यह सब वाक्यों में "अनेकांत" का द्योतक है। गम्य वस्तु के प्रती विशेषण, अर्थ विवक्षित सूचक है ।।१०३।। कारिकार्थ हे भगवन् ! श्रुत केवलियों के सिद्धान्त में एवं आप केवलज्ञानी के सिद्धांतानुसार "स्यात" यह शब्द निपात सिद्ध है वाक्यों में अनेकांत का उद्योतन करने वाला है और गम्य-अर्थ के प्रति समर्थ विशेषण रूप है क्योंकि यह अपने अर्थ से रहित है ॥१०३।। [अन्य जनों द्वारा कल्पित दस प्रकार के वाक्य के लक्षणों का निराकरण करके जैनाचार्य स्वयं निर्दोष वाक्य का लक्षण करते हैं। ] प्रश्न-वाक्य किसे कहते हैं सो कहिये क्योंकि उसी में विसंवाद है। तदुक्तं श्लोकार्थ-कोई आख्यात शब्द को वाक्य कहते हैं, कोई संघात को, कोई संघातवर्तिनी जाति को, कोई अवयवरहित एक शब्द को, कोई वर्णमात्र के क्रम को, कोई बुद्धि को, कोई अनुसंहती को, कोई आद्यपद को, कोई अंतपद को एवं कोई सापेक्ष पद को वाक्य कहते हैं। इस प्रकार न्यायवादियों के यहाँ वाक्यों के प्रति भिन्न-भिन्न कल्पनायें बहुत प्रकार से पाई जाती हैं । ॥१-२॥ 1 तत्त्वज्ञानवत् । दि० प्र० । 2 स्याद्वादनयसंस्कृतम् । दि० प्र० । 3 वक्ष्यमाणप्रकारेषु । दि० प्र०। 4 ज्ञातुमर्थं प्रतिविशेषणं स्यान्नित्य इत्यादिवत् । ब्या० प्र० । गम्यं साध्यं विवक्षितमर्थं प्रति । दि० प्र०। 5 श्रीवर्द्धमानस्य । दि० प्र०। 6 वाक्ये । ब्या० प्र०17 विप्रतिपत्तिरूपम् । ब्या० प्र० । 8 पदत्वम् । ब्या० प्र० । 9 बुद्धिश्च पदविषयज्ञानमनुसंहतिश्च पदानामनुसरणमिति द्वन्द्वः । दि० प्र० । 10 मध्यम् । ब्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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