Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 619
________________ ५४० ] अष्टसहस्री [ द०प० कारिका १०१ प्रक्षीणाशेषमोहान्तरायस्य प्रतिबन्धान्तरं च कथमिव संभाव्येत, येन युगपत्तद्वितयं न स्यात् ? अस्तु नाम केवलं तत्त्वज्ञानं युगपत्सर्वभासनं, मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानं तु 'कथमित्युच्यते, शेषं सर्व क्रमवृत्ति, प्रकारान्तरासंभवात् । तेन क्रमभावि च यन्मत्यादितत्त्वज्ञानं तदपि प्रमाणमिति व्याख्यातं भवति, ‘मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानं, तत्प्रमाणे' इति सूत्रकारवचनात् । ननु च मत्यादिज्ञानचतुष्टयमपि युगपदिष्यते, 'तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्व्यः' इति सूत्रसद्भावादिति न शङ्कनीयं, मत्यादिज्ञानानामनुपयुक्तानामेव योगपद्यवचनात् 'सह द्वौ न स्त, उपयोगादि'त्यार्षवचनात् । छद्मस्थज्ञानदर्शनोपयोगापेक्षया शंका-अच्छा ! केवलज्ञान को तो आप युगपत् सर्वभासी तत्त्वज्ञान मान लीजिये, किन्तु मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चारों ज्ञान युगपत् सर्वभासी कैसे हो सकेंगे? जैन-ऐसी शंका होने पर हम कहते हैं शेष सभी ज्ञान क्रमवर्ती हैं क्योंकि अन्य प्रकार असंभव है। इससे जो मति ज्ञान आदि तत्त्वज्ञान हैं वे क्रमवर्ती हैं वे भी प्रमाण हैं ऐसा कथन किया गया है क्योंकि "मति श्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानं, तत्प्रमाणे" मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच ज्ञान हैं। ये दो प्रमाण में अंतर्भूत हैं क्योंकि प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे ही दो भेद हैं। इस प्रकार से सूत्रकार के वचन हैं । शंका-मति आदि चारों ज्ञान भी युगपत् ही स्वीकार किये गये हैं। "तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्यः" एक जीव में एक साथ एक को आदि लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं ऐसा सूत्र विद्यमान है। जैन-ऐसी आशंका नहीं करना क्योंकि ये मति आदि ज्ञान अनुपयुक्त ही युगपत् होते हैं। एक साथ दो नहीं होते हैं क्योंकि "उपयोगात्" ऐसा आर्ष वचन विद्यमान है। अर्थात् युगपत् चार पर्यंत जो ज्ञान एक साथ एक जीव में माने हैं वे केवल लब्धिरूप या योग्यता रूप हैं किन्तु विषयों को जानने की अपेक्षा से नहीं हैं क्योंकि ज्ञान का उपयोग तो एक ज्ञान का एक काल में एक विषय में ही होता है। शंका-छद्मस्थ के ज्ञान दर्शनोपयोग की अपेक्षा से यह वचन है। जैन-नहीं। इस प्रकार से तो विशेष कहीं पर भी नहीं कहा गया है। शंका-सामान्य कथन विशेष में ही रहता है ऐसा न्याय है, इसलिये सामान्य से विशेष का ज्ञान हो जाता है। 1 आशंक्य । ब्या० प्र० । 2 आचार्यः । दि० प्र०13 केवलज्ञानादन्यत् ज्ञानचतुष्टकं सर्वं क्रमेण वर्तते । दि० प्र०। 4 कारणेन । दि० प्र०। 5 कारिकावाक्यम् । दि० प्र०। 6 स्या० मत्यादिज्ञानचतुष्टयं युगपद्भासते इति न शंकनीयं कस्मात् मत्यादिचतुष्कज्ञानानां स्वस्वविषयेऽप्रवृत्तानामेव योगपद्यमिति वचनात् तथा द्वौ उपयोगी युगपन्न स्तः इति सिद्धान्तवचनाच्च । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :

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