Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 622
________________ प्रमाण का स्वरूप ] तृतीय भाग [ ५४३ नयलक्षितं प्रतिपत्तव्यं तस्य नयोपलक्षितत्वात् केवलज्ञानवत् स्याद्वादोपलक्षितत्वाच्च । 'कुत एतदिति चेद्विकलसकलविषयत्वात् तयोः । तत्त्वज्ञानं वा स्याद्वादनयसंस्कृतं प्रतिपत्तव्यं 2 क्रमाक्रमभावित्वे । कथम् ? ' तत्त्वज्ञानं स्यादक्रमं सकलविषयत्वात् । स्यात् क्रमभावि, विकलविषयत्वात् । स्यादुभयं तदुभयविषयत्वात् । स्यादवक्तव्यं, युगपद्वक्तुमशक्तेः । ' इत्यादि, सप्तभङ्गयाः प्रमाणनयवशादुपपत्तेः । अथवा प्रतिपर्यायं स्याद्वादनयसंस्कृतं प्रतिपत्तव्यं, 4 स्यात्प्रमाणं स्वार्थप्रमितिं प्रति साधकतमत्वात् स्यादप्रमाणं ' प्रमाणान्तरेण प्रमेयत्वात् ' स्वतो " मतिज्ञान आदि स्याद्वाद नय से लक्षित क्रमभावि हैं ऐसा समझना चाहिये क्योंकि वे ज्ञान नयों से उपलक्षित हैं, केवलज्ञान के समान, स्याद्वाद से भी उपलक्षित हैं । शंका- ये मत्यादिज्ञान स्याद्वाद से उपलक्षित कैसे हैं ? जैन - ये नय और स्याद्वाद, विकल और सकल को विषय करने वाले हैं । अथवा तत्त्वज्ञान को स्याद्वाद नय से संस्कृत ही समझना चाहिये क्योंकि ये क्रम और अक्रम से होते हैं । शंका- ये क्रम, अक्रमभावी कैसे हैं ? जैन - तत्त्वज्ञान कथंचित् अक्रमभावी है क्योंकि वह केवलज्ञान की अपेक्षा सकल पदार्थ को विषय करने वाला है । तत्त्वज्ञान कथंचित् क्रमभावी हैं क्योंकि यह मत्यादि ज्ञानों की अपेक्षा विकल को विषय करने वाला है । तत्त्वज्ञान कथंचित् उभयरूप है क्योंकि क्रम से उभय-सकल, विकल दोनों को विषय करने वाला है । तत्त्वज्ञान कथंचित् अवक्तव्य है क्योंकि युगपत् दोनों का कथन अशक्य है । तत्त्वज्ञान कथंचित् क्रमभावी अवक्तव्य है इत्यादि सप्तभंगो प्रक्रिया को प्रमाण नय के निमित्त से लगा लेना चाहिये । अर्थात् तत्त्वज्ञान कथंचित् अक्रमभावि अवक्तव्य है । तत्त्वज्ञान कथंचित् क्रम-अक्रमभावि अवक्तव्य है । अथवा अर्थग्रहण रूप परिणमन ही ज्ञान की पर्याय है और उस पर्याय- पर्याय के प्रति तत्त्वज्ञान स्याद्वाद नय से संस्कृत है ऐसा समझना चाहिये । कथंचित् तत्त्वज्ञान प्रमाण है क्योंकि - स्व वह अर्थ प्रमिति के प्रति साधकतम है । कथंचित् तत्त्वज्ञान अप्रमाण है क्योंकि वह प्रमाणांतर से प्रमेय है अथवा स्वप्तः प्रमेय है 1 आह परः तत् क्रमभावि युगपद्भावि च कुत एव स्यादिति चेत् स्या० तयोः स्याद्वादनययोः क्रमेण सकलविकलविषयत्वात् । दि० प्र० । 2 विवक्षिते । ब्या० प्र० । 3 सामान्यग्रहणम् । ब्बा० प्र० । 4 तत्त्वज्ञानमिति सम्बन्धः । दि० प्र० । 5 अस्मदादि । ब्या० प्र० | यदा तत्त्वज्ञानं करणकारकरूपं तदा प्रमाणमय यदातु तत्त्वज्ञानं स्वं जानातीत्यादि कर्मकारकरूपेण तदाप्रमाणं कोर्थः प्रमेयं भवति कर्तृरूपेण प्रमाता च स्यात् । दि० प्र० । 6 स्वार्थप्रमिति प्रतिसाधकतमत्वादित्यादि नानानय संस्कृतत्त्वमुक्तं प्रमाणसंस्कृतत्वं तु प्रमाणत्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्ये कामिणीत्ययमूह्यम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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