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तर्क प्रमाण का लक्षण ]
तृतीय भाग
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'स्वयमनिश्चितानन्यथाभवनस्यार्थापत्त्युदयत्वप्रसङ्गः, परस्पराश्रयणं च, सत्यानुमानज्ञाने तदन्यथानुपपत्त्या सम्बन्धज्ञानं, सति च सम्बन्धज्ञानेनुमानज्ञानमिति नैकस्याप्युदयः स्यात् । न चान्यत्संबन्धार्थापत्त्युप्थापकमस्त्यनुमानज्ञानाद् येन परस्पराश्रयणं न स्यात् । एतेनोपमानादेः सम्बन्धप्रतिपत्तिः प्रत्युक्ता । तस्मादुपमानादिकं 'प्रमाणान्तरमिच्छतां 'तत्त्वनिर्णयप्रत्यवमर्शप्रतिबन्धाधिगमप्रमाणत्वप्रतिषेधः प्रायशो 'वक्तुर्जडिमानमाविष्करोति ।
इति प्रत्यक्षं परोक्षमित्येतद्वितयं प्रमाणमभ्युपगन्तव्यम्, अर्थापत्त्यादेरनुमानव्यतिरेकेपि, परोक्षेन्तर्भावात् । तदुक्तं,-प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधाश्रितमविप्लवम् । परोक्षं प्रत्यभि
जावेगी कि जिसने साध्यसाधन के सम्बन्ध को जाना ही नहीं है। एवं परस्पराश्रय दोष भी आ जावेगा, अनुमान ज्ञान के होने पर उसकी अन्यथानुपपत्ति से सम्बन्ध का ज्ञान होगा एवं सम्बन्ध का ज्ञान होने पर अनुमान का ज्ञान होगा और इस प्रकार से तो दोनों में से किसी एक की भी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। तथा अनुमान ज्ञान को छोड़कर कोई अन्य ज्ञान तो है नहीं जो कि सम्बन्ध को ग्रहण करने वाली अर्थापत्ति को उत्पन्न करने वाला होवे कि जिससे परस्पराश्रय दोष न आ सके अर्थात् परस्पराश्रय दोष आता ही आता है। इसी कथन से “उपमानादि से सम्बन्ध का ज्ञानअविनाभाव का ज्ञान होता है" ऐसा कहने वालों का भी निराकरण कर दिया गया है। इसलिये उपमानादिकों को प्रमाणांतर रूप स्वीकार करते हुये आप लोग तत्त्व निर्णय (सविकल्पज्ञान, स्मृतिज्ञान,) प्रत्यभिज्ञान, प्रतिबंधाधिगम- तर्क ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं प्रायः करके आपका यह कथन आप लोगों की जड़ता-मूर्खता को ही प्रकट करता है । इसलिये "प्रत्यक्ष और परोक्ष" इस प्रकार से दो प्रमाण स्वीकार करना चाहिये क्योंकि ये अर्थापत्ति आदि प्रमाण अनुमान से भिन्न होते हुये भी परोक्ष प्रमाण में अंतर्भूत हो जाते हैं। कहा भी है
श्लोकार्थ-विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं वह इन्द्रिय, मन और अतीन्द्रिय जन्य होने से तीन प्रकार का है, अभ्रान्त है । प्रत्यभिज्ञानादि प्रमाण परोक्ष प्रमाण हैं, इस प्रकार से प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों में ही इन सबका संग्रह हो जाता है अतः "प्रमाणे" यह द्विवचन सार्थक है।
1 अन्यथा उपरिवृष्टया विना न भवनमधपूरस्यानन्यथा भवनं तदनिश्चितं येन पुंसा तस्यापि । दि० प्र० । 2 परस्पराश्रयणसमर्थनेन । एतेनापत्तेर्दोषोद्भावनेनोपयानागमाभावादीनां संबन्धप्रतिपतिनिराकृता । दि० प्र० । 3 स्मृत्वादिकं प्रमाणं यस्मात् । ननु उपमानादिकमपि प्रमाणमास्ते तदप्यत्र चिन्तनीयमित्याह । दि० प्र० । 4 योगादीनाम् । दि० प्र०। 5 इन्द्रियजनितो विकल्पो निर्णयः । दि० प्र०। 6 वक्र्योज्यमान । इति पा० । दि० प्र० । 7 नैयायिकादेः । प्रयासं । उपमानादिवत्तत्त्वनिर्णयादेरपि अर्थपरिच्छेदकत्वाविशेषात् । दि० प्र० । 8 अनुमानाइँदे । दि० प्र०। 9 त्रिधाऽविप्लवमितिसमन्वयास्तेनायमर्थः प्रतिपादितः प्रत्यक्षानुमेयात्यन्तपरोक्षेष्वार्थेष्वविसंवादीति । कथितम् । ब्या० प्र०।
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