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स्मृति प्रमाण का स्वरूप ]
तृतीय भाग
[ ५३१ [ सौगतः स्मृति प्रमाणं न मन्यते किन्तु जैनाचार्याः तस्याः प्रमाणत्वं साधयति । ]
ननु 'निश्चितार्थमात्रस्मृतेरप्येवं प्रमाणत्वापत्तरतिप्रसङ्ग इति चेन्न, प्रमितिविशेषाभावेतरपक्षानतिकमात् । प्रथमपक्षे 'क्वचित्कुतश्चिद्धमकेतुलैङ्गिकवन्निर्णीतार्थमात्रस्मृतेरधिगतार्थाधिगमात् प्रामाण्यं मा भूत्, प्रमितिविशेषाभावात् । द्वितीयपक्षे पुनरिष्टं प्रामाण्यमनुस्मृतेः, प्रमितिविशेषसद्भावात् । 'प्रकृतनिर्णयस्य प्रामाण्ये हि न किंचिदतिप्रसज्यते, 'दृष्टस्याप्यनिश्चितस्य निश्चयात्, प्रत्यक्षतो निश्चिते 'धूमकेतौ 1 ज्वालादिविशेषाद्धमयेतुलैङ्गिकस्मतौ'1 तु 12विशेषपरिच्छित्तेरभावादप्रामाण्यनिदर्शनात् । 1परिच्छि
[ सौगत स्मृति को प्रमाण नहीं मानता है किन्तु जनाचार्य उसको प्रमाण सिद्ध कर रहे हैं । ] बौद्ध-इस प्रकार से तो निश्चित अर्थमात्र की स्मृति भी प्रमाण हो जावेगी।
जैन नहीं। इस विषय में प्रश्न हो सकते हैं कि वह निश्चितार्थ स्मति प्रमिति विशेष को उत्पन्न करने वाली है या नहीं ? प्रथम पक्ष में तो कहीं पर किसी प्रमाण से निश्चित अग्नि के अनुमान के समान निणितार्थ मात्र की स्मति, अधिगत अर्थ को ही जानने वाली होने से प्रमाण नहीं हो सकेगी क्योंकि प्रमिति विशेष का उसमें अभाव है। अर्थात् प्रत्यक्ष से निश्चित अग्नि में उस सम्बन्धी जो अनुमान रूप स्मृति है वह विशेषज्ञान को उत्पन्न करने वाली न होने से प्रमाण रूप नहीं है।
द्वितीय पक्ष में अनुस्मृति को प्रमाण मानना इष्ट ही है क्योंकि वह ज्ञान विशेष को उत्पन्न करने वाली ही है। इस प्रकृत निर्णय को प्रमाण मानने पर तो कोई भी अतिप्रसङ्ग दोष नहीं आता है। क्योंकि दृष्ट भी यदि अनिश्चित है तो उसे ही यह स्मृति निश्चित करती है । "दृष्टोऽपि समारोपान्तादृक्" ऐसा सूत्र पाया जाता है । प्रत्यक्ष से निश्चित अग्नि में ज्वालादि विशेष से अग्नि के अनुमान से स्मृति के होने पर तो विशेष ज्ञान का अभाव होने से वह अप्रमाण है किन्तु यदि आप
1 निश्चितोऽर्थः । अनुभूतेः । दि० प्र०। 2 न केवलमिन्द्रियजनितव्यवसायस्य प्रमाणत्वोपपत्तिप्रकारेण । दि. प्र० । 3 परिच्छित्ति । ब्या० प्र०। 4 धमकेतोः सम्बन्धिनीलकरूपायाः स्मृतिस्तस्या इव । ब्या० प्र० । 5 अपूर्वपरिज्ञानलक्षण प्रमितिविशेषनिश्चयस्य प्रमाणत्वे सति सम्बन्धस्मतेः कश्चिदतिप्रसंगो नास्ति कस्मात् । दृष्टमप्यनिश्चितं यत् तदपूर्वं तस्य निर्ण करणात् । प्रकृतनिर्णयप्रामाण्यं कुत इत्याह । दि० प्र०। 6 विकल्पस्य । ब्या० प्र० । 7 तस्यैव एवं ते निश्चितत्वात् । ब्या० प्र०। 8 कुतो न किञ्चिदतिप्रसज्यते इत्याह । ब्या० प्र० । 9 स्या० हे सौगत ज्वालांगारादिविशेषोपलंभात् महानसादौ साक्षानिश्चितेऽग्नी पुनोग्न्यनुमानकरणे दृष्टान्तार्थं तस्यैव स्मरणे तु पूर्वदष्टाद्विशिष्ट प्रमितेरभावाप्रामाण्यं भवतु अहमपि मन्ये सर्वत्र सर्वदा यावान्कश्चिद्धूमः स सर्वोप्यग्निजन्मा इति सामस्त्येन प्रमितिविशेषे सत्यपि सम्बन्धस्मृतेरप्रमाणत्वं कल्पते चेत्त्वया तदानुमानं कदापि नोदेति । दि० प्र० । 10 धूमकेतोः संबंधिनी लैंगिकरूपाया: स्मृति । निश्चयनात् । दि० प्र० । 11 प्रत्यक्षेऽनुमानकरणकाले । ब्या० प्र०। 12 निश्चयनात् । ब्या० प्र०। 13 अतीतकालसम्बन्धित्वेन । ब्या० प्र०।
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