Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 598
________________ प्रमाण का स्वरूप ] तृतीय भाग योईयोस्तद्वत्ता साधकतमत्वमिति वचनात् । न चैतदर्शनादिषु संभवति, तद्धावेपि स्वार्थप्रमितेः क्वचिदभावात्, संशयादेरन्यथानुपपद्यमानत्वात्, तदभावेपि च विशेषणज्ञानाद्विशेष्यप्रमिते: सद्भादोपगमात् । ननु ज्ञानस्याप्येवं साधकतमत्व' मा भूत् संशयादिज्ञाने सत्यपि यथार्थप्रमितेरभावात् तदभावेऽपि च भावादिति चेन्न, तत्त्वग्रहणात् । तत्त्वज्ञानं प्रमाणमिति हि निगद्यमाने मिथ्याज्ञानं संशयादि मत्याद्याभासं व्यवच्छिद्यते । ततोस्य' साधकतमत्वं यथोक्तमुपपद्यते एव । नन्वेवमपि तत्त्वज्ञानान्तरस्य प्रमेयस्य प्रमातुश्चात्मनः स्वार्थ जैन-ऐसा नहीं कहना क्योंकि हमने "तत्त्व" पद को ग्रहण किया है । 'तत्त्व ज्ञानं प्रमाणं' इस प्रकार से कहने पर संशयादि रूप मिथ्याज्ञान एवं मत्यादि आभास ज्ञानों का निराकरण हो जाता है इसलिये इस ज्ञान का यथोक्त साधकतम लक्षण बन ही जाता है। शंका - इस प्रकार से तो तत्त्वज्ञानांतर-तत्त्वज्ञान से भिन्न प्रमेय और प्रमाता आत्मा भी स्वपर प्रमिति के प्रति साधकतम हैं उनमें भी प्रमाणता क्यों नहीं हो जावेगी? जैन- ऐसा नहीं कहना क्योंकि वह प्रमेय तो कमरूप है एवं प्रमाता, आत्मा कर्ता रूप है अतः वे दोनों साधकतम नहीं हो सकते हैं। यदि उन्हें साधकतम मनोगे तब तो वे करणरूप हो जावेगे एवं करणरूप से तत्त्व ज्ञानात्मक इन दोनों को भी प्रमाण मानने में क्या विरोध है ? इस प्रकार से सम्पूर्ण प्रमाण विशेषों में व्यापि सम्पूर्ण रूप से अप्रमाण व्यक्तियों से व्यावृत्त एवं प्रतीति से सिद्ध तत्त्वज्ञान ही प्रमाण का लक्षण है क्योंकि वह सुनिश्चित असंभवदबाधक ग वाला है और जिस में बाधा संभव है. जिसमें बाधा के नहीं रहने का संशय है, अथवा जिसमें कदाचित् क्वचित् किसी को बाधा के नहीं रहने का निश्चय है वह प्रमाण नहीं हो सकता है अर्थात् पहले प्रमाण के लक्षण में तीन विशेषणों के द्वारा तीनों दोषों का परिहार किया गया है। देखिये ! 1 आगमात् । दि० प्र० । 2 अत्राह परः दर्शनसन्निकर्षेन्द्रियप्रवृत्त्यादिषु एतत्साधकतमत्वं संभवति स्या० एवं न । कस्माददर्शनादिसद्भ वेपि स्वार्थमिति: क्वचिद्वस्तुनि न सभवति यतोऽन्यथा स्वार्थप्रमिते: संभवे संशयादिकं नोत्पद्यते यतः= पुन: कस्माद्दर्शनादीनामभावेपि सरसि पुष्करादिदर्शनलक्षणविशेषणज्ञानाज्जलमग्नहस्तिविशेष्यनिश्चयस्य सद्भावग्रहणात् । दि० प्र० । 3 दर्शनादे: स्वार्थप्रमिति सद्भावो यदि । ब्या० प्र० । 4 दण्डयोगाइण्डीनि । ब्या० प्र० । 5 अ-ह पर: हे स्याद्वादिन् ज्ञानमपि साधकतमं भवत् कस्मात संशयादिज्ञाने सत्यपि वस्तुनि सत्यभूतनिश्चयस्याघटनात् संशयाद्यभ वेपि च निश्चयरय घटनादिति चेत् । स्याद्वाद्याह एवं न कस्माद्वस्तुनः स्वरूपग्रहणात्तत्वज्ञानं प्रमाणं भवतीति कथ्यमाने सति संशयविपर्ययानध्यबसायलक्षणं मिथ्याज्ञानं यत् तन्मिथ्याज्ञानाद्याभासं स्यात् । न तु मिथ्याज्ञानमिति निश्चीयते यत एवं ततो तस्य तत्त्वज्ञानस्य यथोक्तं करणत्वं जायत एव । दि० प्र०। 6 दर्शनादिप्रकारेण । दि० प्र० । ज्ञान सापेक्षमप्येवम् । इति पा० । ब्या०प्र०। 7 व्यवच्छेदात् । तत्त्वज्ञानस्य । ब्या० प्र० । 8 साधकतमत्वप्रकारेण । ब्या० प्र०। 9 पर आह हे स्याद्वादिन यद्येवं तहि देवदत्तापेक्षया यज्ञदत्तज्ञानलक्षणं तत्त्वज्ञानान्तरं तस्य प्रमेयभूतस्याथवा ज्ञानस्यैव स्वज्ञानापेक्षया यत् ज्ञेयांशं तदेव ज्ञानान्तरं तस्य प्रमेयभूतस्य प्रमातृलक्षणस्यात्मनश्च स्वस्यार्थस्य च निश्चयं प्रतिकरणत्वात् प्रमेयत्वं कुतो न भवेत् अपितु कर्तृभूत आत्मा कर्मतापन्नं तत्त्वज्ञानान्तरञ्चोभयप्रमाणं भवतु । दि० प्र० । तत्त्वानस्य प्रमाणत्वे सत्यपि । दि० प्र०। 10 स्वसन्तानगतस्य च विषयभूतस्य । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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