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अष्टसहस्री
[ द० ५० कारिका १०० अशरीरी के बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न असम्भव हैं। हमारे यहाँ विग्रहगति में पूर्वशरीर के त्याग के अनन्तर एवं उत्तर शरीर को ग्रहण करने के पूर्व कार्मण और तेजस शरीर का सद्भाव माना गया है अतएव शरीर सहित आत्मा के ही बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न सम्भव हैं । अतः "जगत् अकृत्रिम है क्योंकि दृष्टकर्तृक से विलक्षण है आकाशादि के समान" इस अनुमान से यह संसार ईश्वरकृत नहीं है यह बात सिद्ध हो गई।
शंका-यदि कर्मबंध के अनुसार ही संसार है तो किसी को भी मुक्ति नहीं हो सकेगी, कारण कर्मबन्ध के निमित्त तो सदैव विद्यमान हैं।
समाधान - ऐसा नहीं है । जीव के भव्य और अभव्य के भेद से दो भेद सिद्ध हैं। मीमांसक जीव को सर्वया अशुद्ध ही मानते हैं एवं सांख्य जीव को सर्वदा शुद्ध ही मानते हैं किन्तु हम स्याद्वादियों के यहाँ अशुद्ध संसारी जीव सम्यग्दर्शन आदि विशुद्धि के कारणों को प्राप्त करके कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं यह बात मानी गई है, कारण रागादि भाव जीवों के स्वभावभाव नहीं हैं, कर्मोपाधिक हैं । शुद्धिमान्-भव्य जीवों में किन्हीं-किन्हीं की मुक्ति अपनी काललब्धि के अनुसार ही होती है । ये जीव की शुद्धि, अशुद्धि-भव्य, अभव्य रूप दो शक्तियां हैं । मूंगादि के पकने योग्य और न पकने योग्य कोरडू मूंग के समान है। अशुद्धि तो अनादि है किन्तु शुद्धि की व्यक्ति सादि है अतः सदाशिव की मान्यता खण्डित हो जाती है । एवं जीव का यह भव्य और अभव्य स्वभाव तर्क के अगोचर है "स्वभावोऽतर्क गोचरः" प्रत्यक्ष से प्रतीत पदार्थ में यह ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर स्वभाव ही दिया जाता है, किन्तु परोक्ष में ऐसा स्वभाव उत्तर शक्य नहीं है । ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि प्रमाण सिद्ध परमागम से जीव के भव्य और अभव्य स्वभाव प्रसिद्ध हैं । अतः भव्य जीवों में भी कोई-कोई जीव काललब्धि आदि से मिथ्यात्व की घातक सप्त प्रकृतियों का अभाव करके सम्यग्दृष्टि बनकर क्रमशः त्याग तपश्चर्या से कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु अभव्य जीवों के सम्यग्दर्शन आदि की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है ऐसा हो स्वभाव है।
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