Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 586
________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग [ ५०७ विशेषाश्रयसामान्यविकल्पढयानतिवृत्तः, दृष्टविशेषाश्रयस्य सामान्यस्य साध्यत्वे स्वेष्टविघातात्, अदृष्ट विशेषाश्रयस्य' सामान्यस्य साध्यत्वे साध्य शून्यत्वप्रसङ्गानिदर्शनस्य। दृष्टेतरविशेषाश्रयसामान्यसाधनेपि' स्वाभिमतविशेषसिद्धिः कुतः स्यात् ? अधिकरणसिद्धान्तन्यायादिति चेत् कोयमधिकरणसिद्धान्तो नाम ? यत्सिद्धावन्यप्रकरणसिद्धिः सोधिकरणसिद्धान्तः । ततो दृष्टादृष्टविशेषाश्रयसामान्यमात्रस्य बुद्धिमन्निमित्तस्य जगत्सु प्रसिद्ध प्रकरणाज्जगन्निर्माणसमर्थः समस्तकारकाणां प्रयोक्ता सर्वविदलुप्तशक्तिविभुरशरीरत्वादिविशेषाश्रय एव सिध्यतीति चेत्स्यादेवं, यदि सकलजगन्निर्माणसमर्थेनैकेन समस्तकारकाणां प्रयोक्तृत्वसर्वज्ञ का आश्रय करने वाला, दूसरा अदृष्ट विशेष का आश्रय करने वाला । उसमें यदि दृष्ट विशेष को आश्रय करने वाले सामान्य को साध्य करोगे तब तो आपके इष्ट तत्त्व का विघात हो जावेगा अर्थात् कतिपय कारक का प्रयोक्तृत्व, असर्वज्ञत्व, प्रतिहतशक्तित्व, अविभुत्व, शरीर सहितत्व आदि दृष्टविशेषाश्रय सामान्य है इसको साध्य करने पर तो तुम्हारा मान्य ईश्वर निराकृत हो जाता है। द्वितीय पक्ष रूप अदृष्ट विशेष का आश्रय करने वाले सामान्य को साध्य करने पर तो आपका कुंभकारादि दृष्टांत साध्यविकल हो जाता है। एवं दृष्टाष्ट विशेष को आश्रय करने वाले सामान्य को साध्य बनाने पर भी आपको अपने अभिमत विशेष की सिद्धि कैसे हो सकेगी? क्योंकि दो को छोड़कर तीसरा सामान्य ही असंभव है । योग- अधिकरण सिद्धान्त के न्याय से हम सिद्ध करते हैं । जैन-यह अधिकरण सिद्धान्त क्या चीज है ? यौग-जिस कर्तृत्वमात्र के सिद्ध होने पर अन्य कर्ता विशेष ईश्वर की प्रकरण से सिद्धि होती है वह अधिकरण सिद्धान्त है । इसलिये दृष्टाष्ट विशेषाश्रय सामान्य मात्र, बुद्धिमन्निमित्तक के जगत् में प्रसिद्ध हो जाने पर प्रकरण से जगत के निर्माण करने में समर्थ, समस्त कारकों का प्रयोक्तासकलसृष्टि को करने वाला, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, विभु-व्यापक, अशरीरत्व आदि विशेषाश्रय ही सिद्ध होता है। 1 न केवलं प्रत्येकम् । ब्या० प्र०। 2 जगत्सु अधिकरणसिद्धान्तात् बुद्धिमन्निमित्तस्य सिद्धौ सत्यामेव विशिष्टो विभूः सिद्धयति । दि० प्र०। 3 प्रघट्टात् । ब्या० प्र० 4 सिद्धिप्रकारेण । ब्या० प्र०। 5 स्या० हे ईश्वरवादिन अशरीरत्वादिविशेषाश्रय एव ईश्वरो जगन्निर्मापणसमर्थः सिद्धयतीति तवाभिप्रायो यद्येवं भवेत्तदा सर्वज्ञत्वादिविशेषो ये तेनैकेन जगत्कर्ता सहाविनाभूतं भवत्सत् दृष्टेतरविशेषाश्रयबुद्धिमत्कारणसामान्यं कुतश्चित् प्रत्यक्षादिप्रमाणतो घटेत । तच्च तथा न घटेते। कस्मात् स्वकीयस्वकोयोपभोगयोग्यतन्वादिनिमित्तकारणविशेषणानेकसंसारिबुद्धिमत् कारणेन सह तद्बुद्धिमत्कारणसामान्यमविनाभाविभवत्सत्सिद्धमिति प्राक् प्रपञ्चेन समथितात् । दि०प्र०। 6 प्रमाणात् । यदि सिद्धयेत् तहि स्यादेवम् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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