Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 580
________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग [ ५०१ [ योगः ईश्वरस्याशरीरत्वमनादिनिधनं साधयितुमिच्छति किंतु जैनाचार्या निराकुर्वति । ] अथ 'तन्वादिकारकाणि विवादापन्नानि चेतनाधिष्ठितानि, विरम्यप्रवृत्त्यादिभ्यो वास्यादिवदित्यनुमानात् समस्तकारकप्रयोक्तृत्वं बुद्ध्यादिसंपन्नत्वं चेश्वरस्य साध्यते । ततोऽशरीरेन्द्रियत्वम् . अनाद्यनन्ततन्वादिकार्यसंताननिमित्तकारणस्यानाद्यनन्तत्वसिद्धरनाद्यनन्तस्य शरीरत्वविरोधात् । अशरीरत्वमपि तस्यानाद्यनन्तमस्तु बुद्धीच्छाप्रयत्नवत् ।' इति मतं तदयुक्त, प्रमाणबाधनात् । तथा हि, नेश्वरेऽशरीरत्वमनाद्यनन्तमशरीरत्वात्, परप्रसिध्या' कायकरणोत्पत्तेः पूर्वमस्मदाद्य शरीरत्ववत् । नेश्वरबुद्ध्यादयो' नित्या बुद्ध्यादित्वा जैन—ऐसा नहीं कहना, यहां सामान्य से ईश्वर नाम के आत्मान्तर को धर्मी बनाया है और सकल कारकों के प्रयोक्ता रूप में एवं बुद्धयादिमान् से वह विवाद की कोटि में प्राप्त है। यौग ईश्वर को अनादि काल से अशरीरी सिद्ध करना चाहता है, किन्तु जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं। ] योग-"विवादापन्न तनु आदि कारक चेतना से अधिष्ठित हैं, क्योंकि उनमें अनुक्रम से प्रवृत्ति आदि होती हैं, वास्यादि के समान ।" इस अनुमान से समस्त कारकों का प्रयोग करना एवं बुद्धि आदि से सम्पन्न होना हम ईश्वर में सिद्ध करते हैं क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि का कर्तृत्व और बुद्धि आदि से युक्त होना इन दोनों के होने से वह शरीरेन्द्रिय से रहित ही है, कारण कि अनादि अनन्त शरीर आदि कार्यों की परम्परा का निमित्त कारणभूत व ईश्वर अनादि अनन्त ही सिद्ध है । एवं अनादि अनन्त के शरीर का विरोध है अत: उसका अशरीरीपना भी अनादि निधन ही मानना . चाहिये जैसे कि उस ईश्वर में बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न अनादि अनिधन है। ___ जैन-आपका मत भी अयुक्त है क्योंकि प्रमाण से बाधा आती है। तथाहि "ईश्वर में शरीर रहितपना अनादि अनिधन नहीं है क्योंकि वह शरीर रहित है। पर-योगमत की प्रसिद्धि से शरीर और इन्द्रियों की उत्पत्ति के पहले हम लोगों के अशरीर के समान।" एवं "ईश्वर की बुद्धि आदिक नित्य नहीं हैं क्योंकि बुद्धि आदि रूप हैं हम लोगों की बुद्धि आदि के समान।" ___ इसी कथन से आपने जो आगम में कहा है कि "अपाणिपादो जब नो गृहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स वेत्ति विश्वं न हितस्य वेत्ता, तमाहुरग्रयौं महान्तः ॥" अर्थात् वह ईश्वर हस्तपाद से रहित होकर भी शीघ्रगामी एवं ग्रहण करने वाला है। चक्षुरहित भी सबको देखता है, 1 ता। ब्या० प्र० । 2 ईश्वगधिष्ठतानि । दि० प्र० । 3 लोके । ब्या० प्र० । 4 सम्पूर्णत्वम् । ब्या०प्र० । 5 सिद्धम् । ब्या० प्र० । 6 स्या० हे ईश्वरवादिन् यदुक्तं त्वया त दयुक्तं कस्मात्प्रमाणबाधनात् कथमित्युक्त आह ईश्वराशरीरत्वं पक्षोनाद्यनन्तं भवतीति साध्यो धर्मः अशरीरत्वात् परप्रतिषिद्धया कायेन्द्रियोत्पादनात् पूर्वमस्मदाद्यशरीरवत् =तथेश्वरबुद्धीच्छाप्रयत्नाः पक्षो नित्या न भवन्तीति साध्यो धर्मो बुद्ध्यादित्वादस्मदादिबुद्धयादिवत् । दि०प्र० । 7 प्रतिषिद्धया । इति पा० । दि० प्र० । 8 तथापि अग्रे शरीरग्रहणं भविष्यति । ब्या० प्र० । शरीरवतः । इति पा० । दि० प्र०।१हानोपादानादि । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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