Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 579
________________ ५०० ] अष्टसहस्र द० प० कारिका ६६ चेन्न, तस्यापि बुद्धीच्छा प्रयत्न रहितत्वोपगमादन्यथा स्वमतविरोधात् । परेषां तु तस्य ' सशरीरस्यैव बुद्ध्यादिमत्त्वाभ्युपगमान्न तेनानेकान्तः । ननु चेश्वरस्य धर्मित्वे तदप्रतिपत्तावाश्रयासिद्धो हेतुरिति चेन्न, प्रसङ्गसाधनेवश्यमाश्रयस्यानन्वेषणीयत्वात् तत्प्रतिपत्तिसद्भावाच्च । ननु यतः 4 प्रमाणादीश्वरस्यास्मद्विलक्षणस्य' धर्मिणः प्रतिपत्तिस्तेनैव हेतुर्बाध्यते इति चेन्न, आत्मान्तरस्य सामान्येनेश्वराभिधानस्य धर्मित्वात् सकलकारकप्रयोक्तृत्वेन बुद्ध्यादिमत्त्वेन च तस्य' विवादापन्नत्वात् । स्वीकार की गई हैं इसलिये उस आत्मा से अनेकांत नहीं है अर्थात् विग्रहगति में पूर्वशरीर के त्याग के अनन्तर उत्तर शरीर ग्रहण करने के पहले कार्मण एवं तेजस शरीर का सद्भाव माना गया है अतएव शरीर सहित आत्मा के ही बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न सम्भव हैं अन्यत्र नहीं । इसलिये हमारे यहां आत्मा इन्द्रिय, शरीर आदि के पहले अनेकांत दोष नहीं है । योग - ईश्वर को धर्मी मानने पर उसका ज्ञान नहीं होने पर आपका हेतु आश्रय सिद्ध हो जावेगा अर्थात् ईश्वर धर्मी है वह प्रमाण से जाना गया है या नहीं ? ऐसे दो विकल्प उठाकर हम आप जैन से प्रश्न करते हैं। यदि आप कहें कि धर्मी प्रमाण से नहीं जाना गया है तब तो आपका हेतु आश्रय सिद्ध हो जाता है । जैन - नहीं। क्योंकि प्रसङ्ग साधन में आश्रय का अन्वेषण अवश्य ही किया जाता है एवं ईश्वर के ज्ञान का भी सद्भाव पाया जाता । अर्थात् अनिष्ट के आपादन के समय में आश्रय अवश्य ही मानना है । योग - जिस प्रमाण से हम लोगों से विलक्षण धर्मी ईश्वर की प्रतिपत्ति है उसी से ही "वितनुकरणत्वात्" हेतु बाधित हो जाता है 1 संसार्यात्मनः । दि० प्र० । 2 जैनानां प्रसिद्धो न भवति यतः । ब्या० प्र० । 3 आह परः स्याद्वादिन् ईश्वरस्यानङ्गीकारे ईश्वरः पक्ष इति धर्मित्वे वितनुकरणत्वादिति हेतु आश्रयासिद्ध :कोर्थः पक्षाभाव इति चेत् : = स्था० एवं न कस्मादीश्वरवादिन् । त्वयाभ्युपगत ईश्वरोशरीरी भवतीति प्रसंगसाधनं तत्रावश्यमेवाश्रयस्य पक्षस्य अनवलोकनीयत्वत् पुनः कस्मात्तस्य संसार्यात्मलक्षणेश्वरस्य परिज्ञानं संभवाच्च = अत्राह पर अहो स्याद्वादिन् । अस्मन्मतविलक्षणस्य संसार्यात्मलक्षणेश्वरस्य भवतः परिज्ञानमस्ति । तेन प्रमाणेन कृत्वा वितनुकरणादिति हेतुविरुद्धयते इति चेत् । स्यादवादी एवं न कस्मात् संसार्यात्यन: सामान्येनेश्वरसंज्ञस्य पक्षत्वाद पुनः कस्मात् भवदभ्युपगत ईश्वरः सकलकार्याणां निमित्तकर्ता बुद्धीच्छाप्रयत्नवान् अशरीरी भवति अत्रैव विवादत्वादावयोः = आह् परः विदादापन्नानि तन्वादिकार्याणि पक्ष: चेतनाधिष्ठितानि भवन्तीति साध्यो धर्मः विरम्यप्रवृत्तेरित्यादिहेतुकत्वात् यथा कुठारादिकं ज्ञप्त्यनुमानादीश्वरः सकलकार्याणां निमित्तकर्त्ता बुद्धयादिसम्पन्नश्चेति साध्यतेऽस्माभिस्तस्मादीश्वरस्याशरीरेन्द्रियत्वमस्ति कस्मादनाद्यनन्तकार्य मालानिमित्तकारणभूतस्येश्वरस्यानाद्यनन्तस्य शरीरत्वं विरुद्धयते यस्मादीश्वरः पक्षोशरीरीभवतीति साध्योनाद्यनन्तत्वात् यथा बुद्धीच्छा प्रयत्नकम् । दि० प्र० । 4 जैनोक्त ईश्वरबाधको विशेषः । दि० प्र० । 5 संसारी | ब्या० प्र० । 6 आत्मान्तरस्य । ब्या० प्र० । 7 च । ब्या० प्र० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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