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ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन )
तृतीय भाग
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श्वरादेरपि मा भूत् । अन्यथेश्वरदिक्कालाकाशाश्चेतनाधिष्ठिताः स्युः, सर्वकार्येषु क्रमजन्मसु स्थित्त्वा प्रवर्तनादर्थक्रियाकारित्वाद्वास्यादिवदिति न्यायात् । तथा चेश्वरोपीश्वरान्तरेणाधिष्ठित' इत्यनवस्था स्यात्, अन्यथा स्यात्तेनैवास्य हेतोर्व्यभिचारः ।।
[ भवतां ईश्वरो बुद्धिमान् पुन: निंद्य सृष्टि कथं सृजति ? इति जैनाचार्या दोषानारोपयंति । ]
नायं प्रसङ्गो, बुद्धिमत्त्वादिति चेत्तत एव तहि प्रहोणतनुकरणादयः प्राणिनो मा भूवन् । यथैव हि बुद्धिमानीश्वरो नाधिष्ठात्रन्तरं चेतनमपेक्षते तथा प्रहीणान् कुब्जादिशरीरकरणादीनपि मास्म करोत्, सातिशयं तद्विदः प्रहीणस्वकार्याकरणदर्शनात् । प्रहीण
अचेतन ही है। वह चेतना के समवाय से ही चेतन बनता है। अन्यथा ईश्वर, दिशा, काल, आकाश भी चेतनाधिष्ठित हो जावें क्योंकि क्रम से होने वाले सम्पूर्ण कार्यों से प्रवृत्ति होती है एवं क्रमवर्ती सभी कार्यों में अर्थ क्रियाकारिता भी है, वास्यादि के समान, और उस प्रकार से ईश्वर को ईश्वरान्तर चेतन से अधिष्ठित मानने पर तो अनवस्था आ जायेगी। अन्यथा-यदि ईश्वर को चेतन से अधिष्ठित नहीं मानोगे तो उसी ईश्वर से ही यह हेतु व्यभिचारी हो जावेगा क्योंकि क्रम से प्रवृत्ति होने पर भी वह ईश्वर चेतन से अधिष्ठित नहीं है। [ आपका ईश्वर बुद्धिमान् है पुनः निंद्य सृष्टि क्यों बनाता है ? इस प्रकार से जैनाचार्य
___ यहाँ दोषारोपण करते हैं। ] नैयायिक -हमारे यहां यह अनवस्था लक्षण दोष का प्रसंग नहीं आवेगा क्योंकि ईश्वर स्वयं बुद्धिमान (चेतन) है।
__ जैन-यदि ऐसा कहो तब तो उस बुद्धिमान से ही प्राणियों के प्रहीण निष्कृष्ट रूप शरीर इंद्रिय भुवनादि की रचना भी मर होवें। जैसे बुद्धिमान ईश्वर अधिष्ठाता रूप भिन्न चेतन की अपेक्षा नहीं रखता है तथैव निकृष्ट कुब्जादि शरीरेन्द्रियादिकों को भी न बनावे क्योंकि उन-उन कार्यों को विशेष रूप से जानने वाले बुद्धिमान किसी के भी उन निकृष्ट कार्यों का करना नहीं देखा जाता है । अर्थात् जो अच्छे-अच्छे शरीर आदि को जानने वाले हैं वे बुरे, निंद्य शरीर आदि को कैसे बनावेंगे।
1 किञ्च ईश्वरोप्यन्येश्वराधिष्ठितस्सोप्यनेन सोप्यन्येनेत्याद्यनवस्थास्यात् । अन्यथा ईश्वरश्चेतनाधिष्ठितो न भवति चेत्तदानेनैव ईश्वरस्यान्यचेतनाधिष्ठानाभावेनवस्थित्वाप्रवृत्तरिति हेतोव्यं भिचारः। दि० प्र०। 2 अन्यथानेनैव । इति० पा० । दि० प्र० । 3 बुद्धिमत्वादेव । दि० प्र०। 4 मास्मकरोत् माभूवन्मायोगे अद्यतनी । मास्म योगे ह्यस्त नीति कौमारसूत्रात् मास्मयोगे लट् भवति । दि० प्र० । 5 नाधिष्ठानान्तरम् । इति पा० । दि० प्र०। 6 पुंसः । दि० प्र०। 7वैचित्र्यमपरकर्म वैचित्र्यात् । सातिशयानां धीधनानां काण कुब्जादिसदृशात्यन्तहीनस्वकार्यकरणं न दश्यते यतः । दि० प्र.।
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