Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 572
________________ ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन । तृतीय भाग [ ४६३ एतेनैवेश्वरस्य तन्निमित्तकारणत्वं प्रतिक्षिप्तं, नित्येश्वरबोधस्यापि तन्निमित्तत्वे सकृत् सर्वत्रोत्पित्सुकार्याणामुत्पत्तिर्न स्यात्, तस्य सर्वत्राभावात् शरीरप्रदेशतिनोपि सर्वत्र बहिनिमित्तकारणत्वे देशव्यतिरेकस्याप्यभावात् कथमन्वयमात्रेण तत्कारणत्वं युक्तम् ? नित्येश्वरज्ञानस्य सर्वगतत्वेप्ययमेव दोषः। 'तस्यानित्यासर्वगतत्वात् कालदेशव्यतिरेकसिद्धेस्तन्वादौ निमित्तकारणत्वसिद्धिरिति चेन्न, ईश्वरस्य कदाचित्क्वचिद्बोधवैधुर्ये सकलवेदित्व होने पर ईश्वर ज्ञान के सद्भाव में नहीं है, इसलिये ईश्वर ज्ञान का व्यतिरेक सिद्ध हो जाता है, किन्तु सकल जीवों का व्यतिरेक सिद्ध नहीं है । नैयायिक --असर्वगत ईश्वर का ज्ञान नित्य है, इसलिये काल से व्यतिरेक का अभाव होने पर भी देश का व्यतिरक असिद्ध नहीं है सम्पूर्ण जीव, नित्य और सर्वगत हैं अतः उनमें देशकाल से व्यतिरेक सिद्ध नहीं है। जैन - यदि आपका ऐसा मत है तब तो दिशा, काल, आकाश भी उसी प्रकार से सभी की उत्पत्ति में निमित्त कारण मत होवें । इसी कथन से ही "ईश्वर उस सृष्टि का निमित्त कारण है" इस बात का भी निराकरण कर दिया गया है । नित्य ईश्वर के ज्ञान को भी उस सृष्टि के उत्पन्न करने में निमित्त कारण मानने पर एक साथ सभी जगह उत्पन्न होने वाले कार्य भी उत्पन्न नहीं हो सकेंगे क्योंकि वह ज्ञान सर्वत्र नहीं है अर्थात् असर्वगत् है । यदि शरीर प्रदेशवर्ती भी ईश्वर के ज्ञान को सभी जगह बाहर में निमित्त कारण मानोगे, तब तो देश व्यतिरेक भो नहीं हो सकेगा। पुनः अन्वय मात्र से ही वह ईश्वर ज्ञान कैसे तनु आदिकों का कारण कहलावेगा? यदि आप ईश्वर के नित्यज्ञान को सर्वगत मानोगे तो भी ये ही दोष आ जावेंगे। नैयायिक–ईश्वर का ज्ञान अनित्य एवं असर्वगत है अतः उसमें देश, काल से व्यतिरेक सिद्ध है इसलिये वह तनुकरण भुवनादि में निमित्त कारण सिद्ध है। 1 दिक्कालेत्यादिना। ब्या० प्र०। 2 तस्यापि नित्यसर्वगतत्त्वसद्भावात् । ब्या० प्र०। 3 अत्राह परः नित्यस्य महेशज्ञानस्य कार्याणां निमित्तत्वमस्ति । स्या० तदा युगपत्सर्वदेश उत्पत्तिमिच्छूनां कार्याणामुत्पत्तिनं भवेत् कस्मात्तस्येश्वरज्ञानस्य सर्वदेशेऽप्रवर्तमानत्वात् । दि० प्र०। 4 सिसक्षा । ब्या० प्र०। 5 बोधस्य । ब्या० प्र०। 6 आह पर ईश्वरज्ञानमीश्वरस्यकस्मिन् शरीरप्रदेशे वर्तमानं बहिः सर्वत्र कार्याणां निमित्तकारणं भवतीति चेत् स्या० तहि ज्ञानदेशव्यतिरेकेन भवति किन्तु सर्वगतमेव = ईश्वरज्ञानस्य व्यतिरेकाभावे अन्वयमात्रेणव कार्याणां निमित्त कारणत्वं कथं युक्तं न कथमपि =पुनराह परः ईश्वरज्ञानं नित्यं सर्वगतं भवति स्वा० वदति तदप्ययं पूर्वोक्त एव दोषः तदभावे भावादित्यन्वयमात्रेण तद्भावे तदभावादिति व्यतिरेकाभावेपि कार्याणां निमित्तकारणत्वं ज्ञानस्य न युक्तमिति पूर्वोक्तदोषः । दि०प्र०। 7 बोधस्य । ब्या० प्र०। 8 पर आह ईश्वरज्ञानमनित्यमसर्वगतं तस्मात्तस्य देशव्यतिरेकघटनात् तन्त्वादिकार्येषु निमित्तकारणत्वं सिद्धयतीति चेत् = स्या० एवं न । कस्मादीश्वरस्य कदाचित्काले क्वचित्प्रदेशे बोधशन्यत्वे सति सकलवेदित्वं नास्ति कोर्थ ईश्वरोज्ञानीत्यायातम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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