Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 569
________________ अष्टसहस्री ४६० ] [ द० प० कारिका ६६ नित्यत्वविरोधात् । नाप्यर्थान्तरभूतः। संबन्धासंभवादनुपकारात्, उपकारान्तरेनवस्थाप्रसङ्गात् । ततो व्यपदेशोपि मा भूत् ईश्वरस्य सिसृक्षेति । तत्र 'समवायात्तथा व्यपदेश इति चेन्त्र, सर्वथैकस्वभावस्य समवायित्वनिमित्तकारणत्वादिनानास्वभावविरोधात् महेश्वरस्याभिसन्धेरनित्यत्वेपि समानप्रसङ्गः, पदार्थान्तरभूतस्याभिसन्धेस्तेन संबन्धाभावस्य तत्कृतोपकारानपेक्षस्य व्यपदेशासंभवस्य चाविशेषात्, सकलकार्याणामुत्पत्तिविनाशयोः स्थितो' च महे ईश्वर से अभिन्न है या भिन्न ? यदि अभिन्न मानों तब तो आपका ईश्वर नित्य रूप सिद्ध नहीं हो सकेगा, यदि भिन्न मानों तो संबंध असंभव होने से उपकार भी असंभव हो जावेगा । भिन्न उपकार की कल्पना करने पर तो अनवस्था दोष आ जावेगा। पुन: यह व्यपदेश भी नहीं हो सकेगा कि यह सिसृक्षा-सृष्टि करने की इच्छा इस ईश्वर की है। नैयायिक-उस ईश्वर में उस सिसक्षा का समवाय हो जाने से यह सिसृक्षा उस महेश्वर की है हम ऐसा कह देंगे। जैन-ऐसा नहीं कहना । सर्वथा एक स्वभाव वाले ईश्वर में समवायित्व, निमित्त कारणस्वादि नाना स्वभाव का विरोध है। यदि आप महेश्वर के अभिप्राय-सिसृक्षा को अनित्य मानेंगे तो भी नित्यपक्ष के समान ही अनेक दोष आ जावेंगे। ईश्वर से भिन्न उस सिसृक्षा को मानने पर उस ईश्वर से उसके सम्बन्ध का अभाव होने से उसके द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा नहीं होगी, 'यह सिसृक्षा इस ईश्वर की है' ऐसा व्यपदेश ही असंभव हो जावेगा। सकल कार्यों की उत्पत्ति, विनाश और स्थिति के होने पर 1 सम्बन्धसिद्धयर्थं किञ्चिदुपकारान्तरं परिकल्पते । ब्या० प्र०। 2 तत्र ईश्वरेच्छयोः सम्बन्धविचारे समवायसम्बन्धवशादीश्वरस्येयं सिसक्षेति व्यपदेशो घटत इति परेणोक्तम्। स्या० एवं न कस्मात्सर्वथकस्वभावस्य महेश्वरस्य समवायित्वं निमित्तकारणत्वमित्यादिनानारूपत्वं विरुद्धयते यतः । दि० प्र० । 3 ईश्वरस्य सिसक्षा । ब्या० प्र० । 4 जगतः। ब्या. प्र०। 5 अत्राहेशरवादी हे स्याद्वादिन अभिसन्धिः परिणामस्तद्वशादीश्वरः तनुभूवनादिकं करोतीत्युक्ते स्याद्वाद्याह भवतु नाम ईश्वरस्याभिसंधिः स च नित्योऽनित्यो वेति विचारः । नित्यत्वे परिणमनमेव न स्यादनित्यत्वे अनित्यत्वपरिणाममिलितस्येश्वरस्याप्यनित्यत्वदोषो घटते । पुनराह स्याद्वाद्यभिसन्धिरीश्वरादभिन्नो भिन्नो वेति विचार: प्रथमपक्ष ईश्वरस्य नित्यै कस्वभावस्य परिणामित्वं स्यात् द्वितीयपक्षे संबन्धासिद्धिः । कस्मादभिसंधिरीश्वरकृतमुपकारं नापेक्षते यतः सोभिसंधिरीश्वरसंबन्धनिमित्तमुपकारान्तरमपेक्षते । स उपकारोऽभिन्नो भिन्नो वा अभिन्नश्चेदीश्वरस्यानित्यत्वप्रसंगः । भिन्नश्चेत्तदा तस्यायमिति व्यपदेशो न स्यादेवमुत्तरोत्तरोपकारा. श्रयणादनवस्थाप्रसङ्गः । दि० प्र०। 6 अपेक्षणे ईश्वरादिन्नस्योपकारस्याभिन्नस्य वा अनन्तरोक्तदोषानुषङ्गात् । ब्या० प्र०। 7 कथमनित्योभिसन्धिरीश्वरस्य । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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