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ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का खण्डन ] तृतीय भाग
.. [ ४८७ वनाशङ्काव्यवच्छेदात् । कालादिना' व्यभिचारी हेतुरिति चेन्न, तस्यैकस्वभावत्वैकान्तासिद्धेः । अपरिणामिनः सर्वथार्थक्रियाऽसंभवात् तल्लक्षणत्वाद्वस्तुनः' सद्भावमेव तावन्न संभावयामः । सत्त्वस्यार्थक्रियया व्याप्ति रसिद्धेति न मन्तव्यं, तद्रहितस्य खपुष्पादेरसत्त्वनिश्चयात् । 'नन्वसतोप्यसदितिप्रत्ययलक्षणार्थक्रियाकारित्वान्न तया सत्त्वस्य व्याप्तिरिति न शङ्कितव्यं, व्यापकस्य तदतन्निष्ठतया व्याप्याभावेपि भावाविरोधात् तद्व्याप्तेरखण्डनात् । क्रमयोगपद्या
समाधान ऐसा नहीं कहना ! उसमें एक स्वभाव का एकांत सिद्ध नहीं हो सकता है। जो अपरिणामी, एक स्वभावी हैं अर्थात् सर्वथा नित्य रूप अथवा क्षणिक रूप ही हैं उनमें सर्वथा ही अर्थक्रिया असम्भव है । वस्तु तो अर्थकिया लक्षण वाली ही है अतएव अपरिणामी होने से कालादि का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है।
शंका - सत्त्वरूप कालादिकों की अर्थक्रिया से व्याप्ति ही असिद्ध है।
समाधान -आपको ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि अर्थक्रिया से रहित आकाश पुष्पादिकों का असत्त्व हो निश्चित है।
नैयायिक -असत् भी खपुष्पादि "असत्' इस ज्ञान लक्षण अर्थक्रिया वाला है इसलिये उस अर्थ क्रिया से सत्त्व से व्याप्ति नहीं है।
जैन - ऐसी शंका उचित नहीं है। क्योंकि व्यापक तो तत्-अतत् दोनों में निष्ठ (स्थित) रहता है अतः व्याप्य के अभाव में भी व्यापक का रहना अविरुद्ध है। उससे व्याप्ति का खण्डन नहीं होता है । अर्थात् एकत्र भी व्यापक के अवयवभूत व्याप्य में यदि व्यापक रहता है तब तो वह व्याप्ति अखंडित ही है क्योंकि अग्नि और धूम की भी सर्वत्र व्याप्ति नहीं है।
शंका-क्रम और युगपत् से अर्थक्रिया की व्याप्ति असिद्ध है।
1 पर आह कालादि एकस्य भावोस्ति तथापि शालिगोधूमबीजांकुरजननसर्वबस्तुनवजीर्णतादिजननलक्षणानेकविधं कार्यं करोति एव तत् कार्यसुखदुःखादिवैचित्र्यादिति हेतुः कालादिनाव्यभिचारी अस्तीति चेत् =स्या० एवं न । कस्मात्तस्यकालादे: एकान्तेनैव एकस्वभावो न न सिद्धयति यतः=अपरिणामि वस्तु सर्वथा प्रकारेणार्थ क्रियां न करोति पुर्वस्तुनोर्थ क्रियालक्षणत्वात् = अर्थक्रियाभावे वस्तुनोस्तित्वमपि नाङ्गीकुर्मो वयं स्याद्वादिनः = अत्राह परोर्थक्रिया भावेपि वस्तुनः सत्त्वमस्तीत्युक्ते स्वाद्वाद्याह हे प्रतिवादिन वस्तुनः सत्त्वमर्थक्रियां व्याप्नोत्मीति सिद्धिर्मन्तव्या कस्मादथंक्रियारहितं खपुष्पादिकं नास्ति लोक इति नियमात् । दि० प्र० । 2 क्रमेण योगपद्ये न वेति यावत् । ब्या० प्र०। 3 सत्त्वस्य । ब्या० प्र०। 4 आह परः खपुष्पादिकमसत्त्वमपि नास्तीति ज्ञान लक्षणामर्थक्रियां करोति तस्मात्तयार्थक्रियाया सत्त्वस्य व्याप्तिर्नेति चेत् स्यात् त्वयेत्यारेकितव्यं न । कस्मादर्थक्रियालक्षणव्याप्यानधीनतया सत्त्वलक्षण व्याप्याभावेप्यर्थक्रिया सदभावो न विरुद्धयते ततोर्थक्रियाव्याप्तेरविच्छेदात् = पून आह पर: क्रमेणाक्रमेण च सत्त्वस्यार्थक्रिययाव्याप्तिन घटते । अन्यथा घटतामिति चेत् । स्या० वदत्येवं न । कस्मात्क्रमाक्रमी विहायान्यप्रकारेणार्थक्रिया न संभवति लोके यतः वस्तुनः । दि० प्र०। 5 निश्चयः । ब्या० प्र० । 6 अर्थक्रियया सत्त्वस्य व्याप्तेः । ब्या० प्र० ।
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