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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[ २३१
पोद्धारकल्पनया कथंचिज्जात्यन्तरेपि वस्तुनि प्रत्यभिज्ञानादिनिबन्धने स्थित्यादयो व्यवस्थाप्येरन, सर्वथा जात्यन्तरे तदपोद्धारकल्पनानुपपत्तेः स्थित्यादिस्वभावभेदव्थवस्यानाघटनात्, सर्वथा तदजात्यन्तरवत् ।
[ एकस्मिन् वस्तुनि उत्पादादित्रयेण स्वभावभेदे सत्यपि नानात्वविरोधादिदोषा न संभवंति। ]
न च स्वभावभेदोपलम्भेपि नानात्वविरोधसङ्करानवस्थानुषङ्गश्चेतसि ग्राह्यग्राहकाकारवत् । न तोकस्य वस्तुनः सकृदनेकस्वभावोपलम्भे नानात्वप्रसङ्गः, संविद्वेद्यवेदकाकाराणां नानाज्ञानत्वप्रसङ्गात् । तेषामशक्यविवेचनत्वादेकज्ञानत्वे स्थितिजन्मविनाशानामपि
भावार्थ-मतलब यह है कि वस्तु को सर्वथा क्षणिक मान लेने से या सर्वथा नित्य मान लेने से उसमें भेद की सिद्धि नहीं होती है । और भेद के न होने से उत्पाद आदि तीनों स्वभाव की व्यवस्था नहीं बन सकती है। ऐसे ही सर्वथा नित्यानित्य रूप पक्ष में या सर्वथा अनुभय पक्ष में भी भेद कल्पना के न होने से उत्पाद आदि स्वभाव नहीं हो सकते हैं । अतः सर्वथा एकांत पक्ष श्रेयस्कर नहीं है।
[ एक वस्तु में उत्पाद , व्यय और ध्रौव्य रूप से स्वभाव भेद होने पर भी
नानात्व, विरोध आदि दोष संभव नहीं हैं । ] एक ही वस्तु में उत्पादादि त्रय रूप स्वभाव भेद की उपलब्धि होने पर भी नानात्व, विरोध, संकर, अनवस्था आदि दोषों का प्रसंग भी नहीं आता है । जिस प्रकार से एक चित्त रूप ज्ञान क्षण में ग्राह्य, ग्राहकाकार के मानने पर नानात्व, विरोध आदि दोष नहीं माने हैं।
एक ही वस्तु में एक साथ अनेक स्वभावों की उपलब्धि होने पर भी उसमें अनेकपना नहीं है । अन्यथा विज्ञानाद्वैत में भी वेद्य वेदाकाकार होने से नानापने का प्रसंग आ जायेगा।
यदि आप कहें कि ज्ञान में वेद्य-वेदकाकार का विवेचन करना अशक्य है अतएव हम उस ज्ञान को एक रूप स्वीकार करते हैं तब तो किसी वस्तु में स्थिति, उत्पत्ति और विनाश रूप तीन स्वभाव होने पर भी एकपना ही रहे क्या बाधा है, क्योंकि दोनों में कोई अंतर नहीं है । किसी एक
1 कथञ्चिन्नित्यात्मके प्रत्यभिज्ञानादिकारणे वस्तुनि केवलं भेदविवक्षया स्थित्युत्पत्तिविनाशाधर्माः स्याद्वादिभिर्व्यवस्थापिते। कुतः सर्वथा उभयात्मके तेषां स्थित्यादीनां भेदकल्पना नोत्पद्यते यतः पुनः कुतः स्थित्यादिस्वभावस्य भेदव्यवस्थासंभवात् यथा सर्वथाऽनुभयात्मके वस्तुनि । दि० प्र० । 2 जात्यन्तरमुभयरूपं तत्प्रतिषेधोनित्यमनित्यरूपं वाऽजात्यन्तरं तत्र यथा स्थित्यादिस्वभावभेदव्यवस्थानाघटनं तदपोद्धारकल्पनानुपपत्तिश्च यथेतिशेषः । ब्या०प्र०। 3 कथञ्चिन्नित्यानित्यभेदेव स्तुनि । ब्या० प्र० । 4 एकस्य वस्तुनः युगपदकस्वभावदर्शनेपिनानात्वदोषो न लगति लगति चेत्तदासंविदादीनां त्रयाणां नानाज्ञानत्वमायाति तेषां संविदादीनां विवेक्तुमशक्यत्वात् एकज्ञानत्वे सति स्थितिजन्मविताशानामपि क्वचिदेकत्र वस्तुनि एकवस्तुत्वं भवतु । कूतः । तस्याशक्य विवेचनत्वस्यविशेषाभावात् । दि० प्र० ।
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