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अष्टसहस्री
[ च० ५० कारिका ७१-७२ स्वभावभेदसिद्धेः । अन्यथाऽनानक जगत्स्यात्, 'तदभ्युपगमे पक्षान्तरासंभवादिति, विपक्षे बाधकप्रमाणसद्भावान्निश्चितव्यतिरेकत्वात् साधनस्य द्रव्यपर्याययोः सर्वथैकत्वे विरुद्धधर्माध्यासस्यास्खलद्बुद्धिप्रतिभासभेदस्य चायोगाद्भिन्नलक्षणत्वस्यानुपपत्तेः, व्यापकस्य ग्राहकस्य चाभावे व्याप्यस्य विषयस्य चाव्यवस्थितेः । व्यवस्थितौ वा भिन्नलक्षणत्वस्य न किंचिदेकं जगति स्यात् । नापि नाना, विरुद्धधर्माध्यासाद्यभावेपि नानात्वस्य सिद्धौ तस्य 'तत्साधनत्वायोगात् , न चासाधना कस्यचित्सिद्धिरतिप्रसङ्गात् । न च नानात्वैकत्वाभ्युपगमे
सर्वथा एकत्व रूप विपक्ष में बाधक प्रमाण का सद्भाव है। एवं नानात्व का अभाव लक्षण विपक्ष से व्यावृत्ति भी निश्चित है। द्रव्य और पर्यायों को भिन्न करने वाला भिन्न लक्षणत्व हेतु है और उन दोनों में सर्वथा एकत्व के मानने पर विरुद्ध धर्माध्यास और अबाधित बुद्धि का प्रतिभास भेद है। इन दोनों का अभाव हो जावेगा, पुनः हेतु का भिन्न-लक्षणपना नहीं बन सकता है।
क्योंकि व्यापक और ग्राहक के अभाव में व्याप्य और विषय इनकी व्यवस्था भी नहीं बन सकती है । अर्थात् विरुद्ध धर्माध्यास व्यापक है और भिन्न लक्षण हेतु व्याप्य है। अस्खलत, बुद्धि प्रतिभास ग्राहक है और विषय ग्राह्य है। व्यापक और ग्राहक के अभाव में व्याप्य और विषय असंभव हैं। अथवा भिन्न लक्षणपने की व्यवस्था यदि मान लेंगे तब तो जगत में "एक" नाम से कोई चीज ही नहीं रहेगी एवं नाना रूप भी कछ सिद्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि विरुद्ध धर्माध्यासादि के अभाव में भी नानात्व भिन्न-भिन्न वस्तु की सिद्धि मान लेने पर तो वह भिन्न लक्षण हेतु उन नानापने को सिद्ध करने वाला नहीं हो सकेगा और हेतु के बिना किसी को भी सिद्धि नहीं हो सकती है, अन्यथा अति प्रसंग आ जावेगा।
नानात्व और एकत्व को स्वीकार करने में विरुद्ध धर्माध्यास और अस्खलत बुद्धि प्रतिभास भेद को छोड़कर अन्य कोई तीसरा प्रकार भी नहीं है कि जिससे यह जगत् नाना से रहित एक रूप नहीं हो जावे । अर्थात् एक रूप ही हो जायेगा। विरुद्ध धर्माध्यास और इतर से भिन्न नाना और एकत्व स्वरूप अन्य कुछ भी नहीं है एवं अस्खलद् बुद्धि प्रतिभास भेद और अभेद के सिवाय अभ्य कोई उसका हेतु भी नहीं है। जो कि भिन्न प्रकार हो सके। अतः द्रव्य और पर्याय में कथंचित् नानापना और एकपना सिद्ध हो गया।
1 नानकत्व । दि० प्र०। 2 अनेन प्रकारेण । दि० प्र०। 3 विरुद्धधर्माध्यासाऽस्खलबुद्धिप्रतिभासभेदाभावेपि । व्या० प्र०। 4 नानात्वाभावेपि भिन्नलक्षणत्वं व्यवतिष्ठते चेत्तदा जगति किञ्चिद्वस्तु एक न स्यात् । नानात्वमेव सर्व =तथैकत्वाभावेऽशक्यविवेचनत्वं व्यतिष्ठते चेत्तदा जगति किञ्चिन्नाना न सर्वमेकमेव । दि० प्र०। 5 तस्य विरुद्धधर्माध्यासस्य नानात्वसाधनत्वं न संभवति यतः=कस्यचिद्वस्तुनः साधनरहिता सिद्धिर्न स्यात् भवति चेत्तदातिप्रसङ्गः सर्वानुमानोच्छेदः स्यात् । दि० प्र०। 6 न चासाधनात् । इति पा० । साधन रहिता। दि० प्र० ।
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