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अष्टसहस्री
[ स० ५० कारिका ८० भिरनैकान्तिकम् । द्रव्यपर्यायौ हि जैनानामेकमतिज्ञानग्राह्यौ, न च सर्वथैकत्वं प्रतिपद्यते । सौत्रान्तिकस्य च संचिता रूपादिपरमाणवश्चक्षुरादिज्ञानेनैकेन 'ग्राह्याः, 'संचितालम्बनाः
पञ्च विज्ञानकायाः' इति वचनात् । न चैक्यं प्रतिपद्यन्ते । तथा योगाचारस्यापि सकलविज्ञानपरमाणवः सुगतज्ञानेनैकेन ग्राह्याः, न चैकत्वभाजः । इति 'तैरनैकान्तिकं साधनमनुषज्यते । 'नीलतद्धियोरैक्यमनन्यवेद्यत्वात् स्वसंवेदनवदित्यत्रापि परेषामनन्यवेद्यत्वमसिद्धं, नीलज्ञानादन्यस्य नीलस्य वेद्यत्वात् ।।
'एतेनैकलोलीभावेनोपलम्भः सहोपलम्भश्चित्रज्ञानाकारवदशक्यविवेचनत्वं साधनमसिद्धमुक्तं, नीलतद्वेदनयोरशक्यविवेचनत्वासिद्धे रन्तर्बहिर्देशतया विवेकेन प्रतीतेः। यदि पुनरेक
नियमात्" कह रहे हैं । इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। सह शब्द एक शब्द का पर्यायवाची ही है । जैसे सहोदर और भ्राता ये पर्यायवाची ही हैं।
तथैव एक ज्ञान ग्राह्यत्व हेतु भी द्रव्य-पर्याय और परमाणु से अनैकांतिक है । अर्थात् "नील और नीलज्ञान में एकत्व ही है क्योंकि वे दोनों एक ज्ञान से ग्राह्य हैं।" यह एक ज्ञान ग्राह्यत्व हेतु .भी व्यभिचरित है क्योंकि हम जैनियों के यहाँ द्रव्य और पर्याय दोनों ही एक मतिज्ञान के द्वारा ग्राह्य हैं । किन्तु दोनों सर्वथा एकरूप नहीं हैं । सौत्रांतिक बौद्ध के यहाँ भी संचित-पिंड रूप हुए रूपादि परमाणु चक्षु आदि एक ज्ञान के द्वारा ग्राह्य हैं। “संचितालम्बना: पंचविज्ञानकायाः" ऐसा वचन पाया जाता है। अर्थात् एक इन्द्रिय के विषयभूत पांच विज्ञान स्वरूप वे सब एक नहीं हो सकते हैं।
उसी प्रकार आप योगाचार-विज्ञानाद्वैतवादी के यहाँ भी सभी विज्ञान परमाणु एक सुगतज्ञान के द्वारा ग्राह्य हैं किन्तु वे सब ज्ञान परमाणु एकरूप नहीं हैं। इस प्रकार से “एक ज्ञान ग्राह्यत्व लक्षण" हेतु इन द्रव्य, पर्याय और परमाणु के साथ व्यभिचरित हो जाता है।
विज्ञानाद्वैतवादी-नील और नीलज्ञान में एकत्व है, क्योंकि इनमें अनन्यवेद्यत्व है, स्वसंवेदन के समान । अर्थात् नील पदार्थ का उसो के ज्ञान से भिन्नपना नहीं है, यही अनन्यवेद्यत्व है।
जैन-यह अनन्यवेद्यत्व हेतु का कथन भी हमारे लिये असिद्ध ही है। क्योंकि नील ज्ञान से भिन्न नील पदार्थ पाँच इन्द्रियों के द्वारा वेद्य होते हैं । इसी कथन से चित्रज्ञान के आकार के समान
1 सम्मति दर्शयति । ब्या०प्र० । 2 इन्द्रियपञ्चकापेक्षया । ब्या० प्र०। 3 स्वरूप । ब्या० प्र०। 4 उक्त स्त्रिभिः प्रकारैः । ब्या० प्र०। 5 स्याद्वाद्याह हे संवेदनाद्वैतवादिन् नीलनीलज्ञानयोः पक्ष ऐक्यं भवतीति साध्यो धर्मः । अनन्यवेद्यत्वात् । यथा स्वसंवेदनमत्रानुमानेपि परेषां सौगतानामनन्यवेद्यत्वं साधनमसिद्धम् । कस्मानीलज्ञानाद्भिन्न नीलं तथापि नीलज्ञानस्य वेद्यं यतः । दि० प्र०। 6 अनुमाने । ब्या० प्र०। 7 अनन्यवेद्यत्वस्यासिद्धत्वेन । दि० प्र०। 8.भेदेन ।
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