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अ० प. कारिका ८८
४३८ ।
अष्टसहस्री कारकलक्षणमुपायतत्त्वमिदानीं' परीक्ष्यते । तद्धि, केचिदैवमेव दृष्टादृष्टकार्यस्य साधनमित्याचक्षते', पौरुषमेवेत्यपरे । किंचिदैवादेव किंचित्पौरुषादेवेत्यन्ये, तदुभयसाधनत्वेनावक्तव्यमेवेति चेतरे।
[ भाग्येनैव सर्वाणि कार्याणि सिद्ध्यंति इति एकांतमान्यतायाः परिहारः। ]
तत्र देवादेव यदि सर्वस्यार्थस्य सिद्धिरुच्यते तदा दैवमपि कथं पुरुषव्यापारात् कुशलाकुशलसमाचरणलक्षणादुपपद्येत', प्रतिज्ञाहानेः । दैवान्तरादेव दैवं, न पौरुषादित्यभ्युपगमेऽनिर्मोक्षो मोक्षाभावः, पूर्वपूर्वदैवादुत्तरोत्तरदैवप्रवृत्तेरनुपरमात् । ततः पौरुषं निष्फलं भवेत् ।
[ भाग्य से ही एकांत से सभी कार्य होते हैं इस एकांत मान्यता का जैनाचार्य परिहार करते हैं। ]
पिछली कारिका में ज्ञापक लक्षण उपाय तत्त्व का निर्णय किया गया है । अब कारक लक्षण उपाय तत्त्व की परीक्षा करते हैं। उसी का स्पष्टीकरण
कोई मीमांसक दैव ही दष्ट और अदृष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष और परोक्ष आदि सभी कार्यों का साधन है" ऐसा कहते हैं । सौगत पौरुष को ही मानते हैं। कुछ स्वर्गादि देव से ही होते हैं एवं कुछ कृषि आदिक पौरुष से ही होते हैं इस प्रकार काई मीमांसक विशेष मानते हैं। ये दोनों साधन रूप अवक्तव्य ही हैं कोई ऐसा मानते हैं। उन सभी में पहले प्रथम पक्ष का निराकरण करते हैं
यदि भाग्य से ही सभी कार्यों की सिद्धि मानी जाये तब तो भाग्य भी कुशल एवं अकुशल आचरण रूप पुरुषार्थ से कैसे बनेगा? क्योंकि प्रतिज्ञा हानि दोष आता है। यदि भिन्न भाग्य से अर्थात् पूर्व के भाग्य से ही भाग्य को माने, पुरुषार्थ से न मानें तब तो किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा, मोक्ष का अभाव हो जावेगा कारण कि पूर्व-पूर्व के भाग्य से उत्तरोत्तर भाग्य बनते जाने से किसी समय भी उपरति-भाग्य का अभाव नहीं हो सकेगा एवं मोक्ष के अभाव से मोक्ष निमित्तक पुरुषार्थ भी निष्फल हो जावेगा।
1 ज्ञायकलक्षणमुपायतत्त्वं परीक्षयित्वाधुनाषट्कारकलक्षणमुपायतत्त्वं विचायते केचन वादिन ऐहिकामत्रिककार्यस्य साधनं भवतीति वदन्ति =अपरे केचन पौरुषमेवदृष्टादृष्टकार्यस्य साधनं भवतीति वदन्ति =अन्ये किञ्चित्कार्यस्य साधनं देवात् किञ्चित्पौरुषात् भवतीत्याहुः = केचन तदुभयादपि कार्यस्य साधनं न भवतीत्यतोऽवक्तव्यभेवेति वदन्ति =तत्र चतुर्यु विकल्पेषु मध्ये यदि सर्वस्य लोकस्य देवादेवार्थसिद्धिरुत्पद्यते दैववादिभिस्तदा पुरुषव्यापारावं जायत इति कथं घटते । घटते चेत्तदा देवादेवार्थसिद्धि इति तव प्रतिज्ञा हीयते =पराह देवाददैवं जायते न पौरुषादिति चेत् स्या० वदति इत्यङ्गी क्रियमाणे मोक्षाभावः कस्माद्देवाईवप्रवृत्ते रनवस्थानात् = तस्मात्पुरुषव्यापारो निष्फलो भवेत् । दि० प्र० । 2 साधकम् । दि० प्र०। 3 मीमांसकाः । दि० प्र० । सौगताः । ब्या० प्र०। 4 अर्थस्य प्रयोजनस्य । ब्या०प्र० । 5 अन्यथा। ब्या०प्र० । 6 ता । ब्या० प्र० ।
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