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पुण्य और पाप के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४५१ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि'।
वीतरागों मुनिविद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्ततः ॥६३॥ [ यदि एकांतेन स्वस्मिन् दुःखोत्पादने पुण्यं सुखोत्पादने पापं भवेत्तर्हि के के दोषाः संतीति कथंयति आचार्याः । ]
स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं सुखोत्पादनात पापमिति यदीष्यते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं युञ्ज्यानिमित्तसद्भावात्, वीतरागस्य कायक्लेशादिरूपदुःखोत्पत्तेविदुषस्तत्त्वज्ञानसंतोषलक्षणसुखोत्पत्तेस्तन्निमित्तत्वात् ।
स्यान्मतं-'स्वस्मिन् दुःखस्य सुखस्य चोत्पत्तावपि वीतरागस्य तत्त्वज्ञानवतस्तदभिसंधेरभावान्न पुण्यपापाभ्यां योगस्तस्य तदभिसंधिनिबन्धनत्वात्' इति तीनेकान्तसिद्धिरेवा
समाधान-यदि ऐसी बात है तब तो पर में सुख-दुःख को उत्पन्न कराना ही एकान्त से पुण्य पाप के बंध का हेतु नहीं रहता है। उसी का स्पष्टीकरण करते हैं
यदि अपने को दुःख देने से, पुण्य बंध सुख से हो पाप। तब तो वीतराग मुनि निज में, कायक्लेश से सहते ताप ।। मुनि विद्वान तत्त्व को समझें, संतोषामृत सुख भोगी।
ये दोनों फिर पुण्य-पाप से, बंधे मुक्ति किसको होगी ।।३।। कारिकार्थ-यदि अपने आप में दुःख को उत्पन्न करने से एकांत से पुण्य बंध एवं सुख उत्पादन करने से पाप बंध माना जावे तो वीतराग एवं विद्वान मुनि भी निमित्त से पुण्य, पाप से बंध जाने चाहियें ॥६३॥ [ यदि एकांत से स्वतः में दुःख उत्पन्न करने से पुण्य और सुख उत्पन्न करने से
पाप होता है तो क्या दोष आते हैं सो बताते हैं। ] यदि अपने में दुःख के उत्पादन से पुण्य और सुख के उत्पन्न करने से पाप बंध होता है ऐसा माना जावे तब तो वीतरागी मुनि और विद्वान मुनि भी उन पुण्य, पाप के द्वारा अपने को बंध से युक्त कर लेंगे। क्योंकि मिमित्त का सद्भाव पाया जाता है । वीतराग मुनि त्रिकाल योगादि के अनुष्ठान रूप काय-क्लेशादि से अपने में दुःख को उत्पन्न करते हैं एवं विद्वान् मुनि के भी तत्त्वज्ञान से सन्तोष लक्षण सुख की उत्पत्ति देखी जाती है, ये दोनों ही पुण्य और पाप के निमित्त हैं।
शंका-"अपने में दुःख और सुख को उत्पन्न करने पर भी वीतराग और तत्त्वज्ञानी मुनियों
1 चेत्तहि । दि० प्र० । 2 कषायरहितोभिप्रायरहितस्य । दि० प्र० । 3 सकल शास्त्रप्रवीणः । दि० प्र० । 4 तस्यापि बन्धो भवतु न च तथा । दि. प्र.।
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