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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[ ४८३
जैन - मिथ्याज्ञान का सम्पूर्णतया अभाव होना असम्भव है अतएव मिथ्याज्ञान से दोष, उससे प्रवृत्ति, उससे जन्म तथा उस जन्म से अशेष दुःख होते ही रहेंगे । पुनः मोक्ष कैसे होगा ?
नैयायिक आत्मा, शरीर, इन्द्रिय आदि प्रमेयतत्त्व हैं इनके ज्ञान से मोक्ष होता है, किन्तु प्रमाणादि सोलह पदार्थ का ज्ञान न होने से भी अल्पज्ञान से मुक्ति सम्भव है । आप यह भी नहीं कह सकते हैं कि बहुत से मिथ्याज्ञान से बंध होता रहेगा क्योंकि दोष सहित मिथ्याज्ञान से ही बन्ध होता है ।
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जैन - पुन: 'अज्ञान से ही बंध होता है' यह एकान्त कहां रहा ? तथा "इच्छाद्वेषाभ्यां बन्धः " कहने पर भी केवली का अभाव ही हो जावेगा क्योंकि योगी ज्ञान के पहले इच्छा और द्वेष सदैव विद्यमान हैं उनका अभाव असम्भव है ।
सौगत- अविद्या और तृष्णा के द्वारा बंध अवश्यंभावी है, तथा अल्पज्ञान से मोक्ष होता है क्योंकि उपाय सहित हेयोपादेय तत्त्व को जानने वाला सुगत है, ऐसा वचन है ।
जैन - यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि हम लोगों को प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान रूप विद्या का होना असम्भव है और ज्ञेय पदार्थ भी विशेष रूप से अनन्त हैं "अनन्ता: लोक धातवः " ऐसा आपने ही कहा है अतः अविद्या होगी पुन: सुगत सर्वज्ञ कैसे होगा ? तथा जो आपने अल्पज्ञान से पुनः बहुत अवशिष्ट अज्ञान से बंध होता ही रहेगा ।
नष्ट हुये बिना तृष्णा भी नष्ट नहीं मोक्ष कहा सो भी अशक्य है क्योंकि
यदि वृद्ध बौद्ध कहे कि "अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, उससे षट् आयतन आदि बारह कारणों का आश्रय लेकर संसार होता है । पुनः "अविद्यातृष्णाभ्यां बंधः द्वादशाङ्गद्वारकः संसारः” यह कथन परस्पर विरुद्ध है । अर्थात् इन बारह हेतुक संसार को मानने से अज्ञान से बन्ध, ज्ञान से मोक्ष सिद्ध नहीं हो सकेगा । यदि अज्ञान से ही बंध मानोगे तब तो कोई भी जीव कभी भी मुक्त नहीं हो सकेगा क्योंकि सभी को किसी न किसी विषय में अज्ञान तो है ही है । इसलिये एकांत मान्यता कथमपि श्रेयस्कर नहीं है । स्याद्वाद के विद्वेषियों के यहाँ उभयैकात्म्य भी श्रेयस्कर नहीं है तथंव "अवाच्या" एकांत कहना भी शक्य नहीं है । अब स्याद्वाद की सिद्धि करते हैं
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