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अष्टसहस्री
४५२ ]
[ न० प० कारिका ६४ याता । आत्मसुखदुःखाभ्यां पापेतरकान्तकृतान्ते पुनरकषायस्यापि ध्रुवमेव बन्धः स्यात् । ततो न कश्चिन्मोक्तुमर्हति, तदुभयाभावासंभवात् । नहि पुण्यपापोभयबन्धाभावासंभवे' मुक्तिर्नाम, संसृतेरभावप्रसङ्गात् । ततो नैतावेकान्तौ संभाव्येते दृष्टेष्टविरुद्धत्वात् सदायेकान्तवत् ।
विरोधान्नोभयकात्म्यं' स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥६४॥
के आसक्ति या इच्छा रूप अभिप्राय नहीं है, अतएव पुण्य और पाप का बंध नहीं होता है क्योंकि वह बंध उन-उन अभिप्राय के निमित्त से ही है।"
समाधान-यदि आप कहें तब तो अनेकान्त की ही सिद्धि हो गई क्योंकि अभिप्राय से सहित हो सुख, दुःख का उत्पादन करना पुण्य और पाप में हेतु सिद्ध है, अभिप्राय के अभाव में नहीं है।
आत्मा में सुख, दुःख के द्वारा पाप और पुण्य बंध का एकान्त सिद्धान्त स्वीकार करने पर पुनः अकषायी के भी निश्चित ही बंध हो जावेगा। फिर तो कोई भी मुक्त नहीं हो सकेगा क्योंकि उन पुण्य-पाप रूप उभय का अभाव हो असंभव हो जायेगा । अर्थात् पुण्य और पाप का अभाव कदाचित् भी नहीं हो सकेगा। पुण्य, पाप रूप दोनों के बंध का अभाव न हो सकने पर मुक्ति भी नहीं हो सकेगी, पुनः संसार के अभाव का भी प्रसंग आ जावेगा । इसलिये ये दोनों ही एकान्त संभव नहीं हैं क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्ष से विरोध आता है, जैसे सदादि एकान्त में विरोध आता है।
पुण्य-पाप के बंध, उभय का, यदि एकात्म्य लिया जावे। स्याद्वाद विद्वेषी जन में, सदा विरोध रहा भावे ।। यदि दोनों की "अवक्तव्यता", कहो सदा एकान्त सही।
तब तो “अवक्तव्य" इस वच से, स्वमत कथन यह शक्य नहीं ॥६४॥ कारिकार्थ-स्याद्वादविद्वेषी के यहां उभयकात्म्य भी ठीक नहीं हैं क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। सर्वथा "अवाच्य" तत्त्व को स्वीकार करने पर तो "अवाच्य" यह कथन भी नहीं बन सकेगा ।।६४||
1 एव । ब्या० प्र०। 2 पुण्योपापोभय । पुण्यपापसद्भावात् । दि० प्र०। 3 पुण्यपापद्वयबन्धसद्भावे नाम अहो. मुक्तिन हि मुक्तिर्भवति चेत्तदा संसारस्याभावत्वमायाति = आत्मसुखदुःखाभ्यामेकान्ततः पुण्यपापबन्धो पक्ष एकान्ततो न संकलप्यते इति साध्यो धर्मो दृष्टेष्टविरुद्धत्वात् यदृष्टेष्ट विरुद्धं तदेकान्ततो न संभाव्यं यथा सदाद्येोकान्तः । दि० प्र० । 4 संसृतेरेब भावप्रसंगादिति इति पा० । दि० प्र०। 5 कारिकाद्वयोक्तदूषणं यतः । पुण्यपापलक्षणी। दि० प्र०। 6 प्रत्यक्षानुमानाभ्यां विरोधात् । दि० प्र०। 7 पुण्यपापयोस्तादात्म्यम् । दि० प्र० ।
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