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उभय और अवक्तव्य का खंडन ।
तृतीय भाग
विरोधान्नोभयेकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥६७॥ न हि सर्वात्मनकस्यैकदा' ज्ञानस्तोकान्मोक्षो बहुतश्चाज्ञानाद्बन्ध इत्येकान्तयोरविरोधः स्याद्वादन्यायविद्विषां सिध्यति, येन तदुभयैकात्म्यं स्यात् । तथाऽवाच्यतैकान्ते स्ववचनविरोधः पूर्ववत् ।
कुतस्तहि पुण्यपापबन्धः प्राणिनां येनाबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः स्यात् ? कुतो वा मोक्षो मुनेर्यतः' पौरुषादिष्टसिद्धिर्बुद्धिपूर्वा स्यात् ? चार्वाकमतमेव वा
अब उभयकात्म्य में विरोध दिखाते हैं
यदि अज्ञान-ज्ञान से बंध-मोक्ष उभय का ऐक्य कहो । स्याद्वाद विद्वेषी मत में, उभय विरोधी हैं तब तो।। यदि दोनों का "अवक्तव्य" ही, अनपेक्षित हो मान लिया।
तब तो "अवक्तव्य" इसको भी, कैसे वच से प्रकट किया ॥६७॥ कारिकार्थ-स्याद्वादन्याय के द्वेषियों के यहां इन दोनों का परस्पर निरपेक्ष एकांत भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि विरोध आता है । एकांत से अवाच्यता को स्वीकार करने पर "अवाच्य" यह वचन ही कथमपि शक्य नहीं है ॥६७।।
स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के यहाँ सम्पूर्ण रूप से एक जीव के एक काल में ही ज्ञानस्तोक से . मोक्ष एवं बहुत से अज्ञान से बंध होना सम्भव नहीं है क्योंकि एकांत में विरोध आता है। अतएव उभयेकात्म्य भी सिद्ध नहीं होता है। उसी प्रकार से अवाच्यतैकांत में पूर्ववत् स्ववचन विरोध आता है।
उत्थानिका-पूनः प्राणियों को पुण्य और पाप का बंध कैसे होता है कि जिससे अबुद्धिपूर्वक की अपेक्षा होने पर इष्ट और अनिष्ट स्वभाग्य से होवे ? अथवा मुनियों को मोक्ष भी कैसे होगी कि जिससे पुरुषार्थ से ही बुद्धिपूर्वक इष्ट सिद्धि हो सके ? अथवा "बंध और मोक्ष का अभाव ही है क्योंकि परलोक का अभाव है" इस प्रकार से चार्वाक मत ही सिद्ध क्यों न हो जावे ? इत्यादि आशंका
1 अज्ञानाद्बन्धः ज्ञानस्तोकान्मोक्ष एकस्यैकस्मिन् काले । दि० प्र० । 2 पुरुषस्य । ब्या० प्र०। 3 बन्धमोक्षोभय । ब्या० प्र० । 4 आक्षेपे न भवेदित्यर्थः । ब्या० प्र० । अवतारिका=अत्राह परः कश्चिद् हे स्याद्वादिन् भवन्मते यद्यज्ञानाद्बन्धो न तहि पुण्यपापबन्धः कुतः न कुतोपि तथा पौरुषात् । बुद्धिपूर्वा इष्टिसिद्धिर्यत्र कुत्र न कुत्राप्येवं सति किमायातं बन्धमोक्षाभावे परलोकाभावस्तस्मात्तव मतं चार्वाक मतसदृशं कि न भवेत् । अपितु भवेत् । परस्येत्याशंका निराकर्तुकामा आचार्या उत्तरमाहुः । दि० प्र० । 5 आक्षेपे । दि० प्र०। 6 आक्षेपे। दि० प्र० । 7 यत्र । इति पा० । दि० प्र.। 8 मोक्ष । दि० प्र० ।
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