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अष्टसहस्री
"सप्तम परिच्छेद का सार"
इस परिच्छेद में बौद्धाभिमत विज्ञानैकांत का उपपत्तिपूर्वक खण्डन किया गया है । अथवा हित की प्राप्ति और अहित का परिहार साधनपूर्वक है । वह साधन ज्ञापक एवं कारक के भेद से दो प्रकार का है । इसमें ज्ञापक, उपायतत्त्व का निर्णय किया है । उसमें कोई बौद्ध बाह्य उपेय तत्त्व का अनादर करके केवल उपायतत्त्व ज्ञान को ही स्वीकार करते हैं, किन्तु वह समंजस नहीं है । अथवा बाह्य उपेय पदार्थ का अभाव करने पर तो ज्ञापक उपाय भी असत् हो जावेगा ।
यदि आत्मा को उपेय रूप स्वीकार करो तो भी ज्ञान के साथ अभेद होने से अथवा तादात्म्य होने से आत्मा के लिये उसकी स्वीकृति ही व्यर्थ है क्योंकि उसका ज्ञान सत् रूप होने से स्वतः सत्त्व सिद्ध है । एवं वहां उपाय रूप से ज्ञान अनुपयोगी है ।
[ स० प० कारिका ८७
दूसरी बात यह है कि बाह्य अर्थ का अभाव सिद्ध नहीं होता है । बाह्य पदार्थ का ज्ञान होने पर भी उन्हें भ्रांत मानने पर तो ज्ञान का स्वरूप भी भ्रांत हो जायेगा क्योंकि दोनों जगह समानता ही है । दृश्यमान बाह्य पदार्थ को स्वप्न के समान भ्रांत मानने पर तो जाग्रत विषय के समान भ्रांत भी उन्हें मानों, अन्यथा स्वप्न दशा एवं जाग्रत दशा दोनों में समानता होने पर स्वप्न का विषय दृष्टांत नहीं बन सकेगा । एवं पर को प्रतिपादन किये बिना ज्ञानाद्वैत भी कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि प्रतिपादन करना तो पुदुगलकृत शब्दात्मक होने से बाह्य पदार्थ रूप है, अतः ज्ञानाद्वैत एकांत श्रेयस्कर नहीं है ।
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बाह्यार्थ रूप होने से शब्द को मिथ्या मानने से तो उन शब्दों से ही प्रतिपादित आपका विज्ञानाद्वैत भी मिथ्यारूप हो जावेगा क्योंकि साधन को मिथ्या मानने पर उसे सिद्ध किया गया साध्य भी मिथ्या ही होगा इत्यादि प्रकार से इसमें विज्ञानाद्वैत का निरसन किया गया है ।
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