________________
जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[
४३५
ज्ञानकान्तादिपक्षे गगनफलमिव ज्ञा (कोपायतत्त्वं',
संभाव्यं नैव मानात् कथमपि निपुणं भावयद्भिर्महद्भिः। स्याद्वादे तत्प्रसिद्ध विविधनयबलात्तत्त्वतः शुद्धबुद्धे -
रित्याज्ञातं प्रपञ्चाद्विचरतु सुचिरं स्वामिनः सद्वचःसु ॥१॥ इत्याप्तमीमांसालङ्कृतौ सप्तमः परिच्छेदः ।
श्लोकार्थ-निपुणता चाहने वाले महापुरुषों द्वारा विज्ञानाद्वैतादि एकांत पक्ष में ज्ञापक रूप उपाय तत्व आकाश फल के समान प्रमाण से कथमपि संभाव्य नहीं है ऐसा समझना चाहिये । एवं शुद्ध बुद्धि वाले पुरुषों को विविध नयों के बल से स्याद्वाद में वस्तुतः ज्ञापकोपाय तत्त्व प्रसिद्ध है। इसइसलिये श्री स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य के सद्वचनों में विस्तार से वह उपाय तत्त्व चिरकाल तक विचरण करे ॥१॥
स्वात्मतत्त्व सर्वोच्च है, नमू-नमूं नत शीश ।
जिनवाणी की भक्ति से, बनूं त्रिजग के ईश ।। इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यकृत "आप्तमीमांसालंकृति" अपरनाम "अष्टसहस्री" ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमतीकृत भाषा अनुवाद, पद्यानुवाद
भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश सहित इस "स्याद्वादचिंतामणि" नामक टीका में यह सातवां परिच्छेद पूर्ण हुआ।
1 ज्ञान कान्तवादी योगाचार आदिशब्देन बहिरङ्गार्थ कान्तवादी वैभाषिक: सौत्रान्तिकश्च वाच्यतत्वमुभयकान्ते क्रमविवक्षायां वैभाषिकसौत्रातिन्कयोरेब वाच्यमनुभयैकान्ते युगपद्विवक्षायां योगाचारस्य ग्रहणम् । ब्या० प्र०। 2 प्रमाणलक्षणोपायस्वरूप । दि० प्र०। ३ यूक्ति । व्या० प्र०। 4 आज्ञा । दि० प्र०। 5 सद्वस्तु । इति पा० । दि० प्र० । सतां वचनेषु । दि० प्र०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org