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अष्टसहस्री
[ स०प० कारिका ८७ इससे जीव शब्द का प्रतिबिम्बक ज्ञान प्रकट होता है । इस प्रकार से तीनों ही संज्ञाओं से तीन प्रकार के अर्थ जाने जाते हैं।
__यदि विज्ञानवादी कहे कि ज्ञान से अतिरिक्त कोई संज्ञा एवं पदार्थ हो नहीं है । इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि वक्ता में वाक्य, श्रोता में ज्ञान, एवं प्रमाता में प्रमाण इस प्रकार से वक्ता, श्रोता और प्रमाता एवं बोध वाक्य और प्रमा ये तीनों भिन्न-भिन्न हैं।
___ यदि बौद्ध इन सबको भ्रान्त कल्पित करे तब तो आपका इष्ट तत्त्व भी भ्रान्त हो जायेगा। क्योंकि इष्ट तत्त्व सिद्ध करने वाले वाक्य भी तो भ्रान्त रूप ही माने हैं। तथा आपकी मान्यता भ्रान्त होने से स्याद्वाद ही निर्धांत सिद्ध हो जावेगा । अतः बाह्य पदार्थ के होने पर ही ज्ञान एवं शब्द प्रमाण रूप हैं तथा बाह्य पदार्थ के अभाव में प्रमाणभूत नहीं हैं इस प्रकार से अर्थ की प्राप्ति-अप्राप्ति से ही सत्य, असत्य की व्यवस्था होती है।
"बाह्य पदार्थ परमार्थ सत् हैं क्योंकि साधन एवं दूषण का प्रयोग देखा जाता है।" यदि बाह्य पदार्थ के अभाव में भी साधन दूषण का प्रयोग होवे तब तो स्वप्न और जाग्रत अवस्था समान हो जावेगी अर्थात् योगाचार बाह्य पदार्थ का अभाव सिद्ध करता है तथा सौतांत्रिक बौद्ध बाह्य पदार्थों को मानकर भी सर्वथा क्षणध्वंसी मानते हैं । अतएव दूषण दोनों जगह समान हैं।
प्रश्न यह होता है कि परमाणुओं का सम्बन्ध एक देश से है या सर्वदेश से ? यदि एक देश से मानों तब तो पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उर्ध्व, अधः षट् दिशाओं के विभाग से परमाणु षडंश हो जाता है । यदि सर्व देश से सम्बन्ध मानें तब तो स्कंधरूप बाह्य परमाणुओं के प्रचय को एक परमाणु रूप मानना पड़ेगा। इत्यादि अनेक दोष आने से बौद्धाभिमत असत्य ही ठहरता है । इस प्रकार से बाह्य पदार्थ के सिद्ध हो जाने से वक्ता, श्रोता एवं प्रमाता तीनों सिद्ध हो जाते हैं एवं उनके बोध, वाक्य और प्रमा भी सिद्ध हो जाते हैं अतः जीव शब्द बाद्धार्थ सहित सिद्ध हो जाता है । अतएव जीव तत्त्व की सिद्धि हो जाती है । अब सप्तभंगी को दिखाते हैं ।
१. कथंचित् सभी ज्ञान अभ्रान्त ही हैं क्योंकि ज्ञान प्रमेय की अपेक्षा स्वरूप से सभी सत्य हैं। २. कथंचित् सभी ज्ञान भ्रान्त ही हैं क्योंकि बाह्य पदार्थ में विसंवाद की अपेक्षा रहती है। ३. कथंचित् उभयरूप है क्योंकि क्रम से दोनों की अर्पणा है। ४. कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ संवाद एवं विसंवाद दोनों की अर्पणा है। ५. कथंचित् अभ्रान्त और अवक्तव्य हैं क्योंकि संवाद एवं युगपत् दोनों की विवक्षा है । ६. कथंचित् भ्रान्त अवक्तव्य हैं क्योंकि विसंवाद एवं युगपत् दोनों की विवक्षा है। ७. कथंचित् सभी ज्ञान उभय एवं अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम एवं अक्रम से द्वय की विवक्षा है ।
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