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अष्टसहस्री
[ स०प० कारिका ८७ संवादविसंवादसिद्धिः सिध्यत्येव । स्यात् सर्वमभ्रान्तमेव ज्ञानं भावप्रमेये संवादापेक्षणात् । स्याद्भ्रान्तं बहिरर्थे विसंवादापेक्षणात् । स्यादुभयं, क्रमार्पिततद्वयात् । स्यादवक्तव्यं सहापिततद्वयात् । स्याद्भ्रान्तावक्तव्यं संवादसहार्पिततद्वयात् । स्याङ्क्रान्तावक्तव्यं विसंवादसहार्पिततद्वयात् । स्यादुभयावक्तव्यमेव क्रमाक्रमापिततद्वयात् । इति पूर्ववत् सप्तभङ्गीप्रक्रिया योजयितव्या, तथैवातिदेशसामर्थ्यात्' तद्विचारस्य सिद्धेः, प्रमाणनयादेशादपि प्रतिपत्तव्या।
कथंचित् सभी ज्ञान अभ्रान्त ही हैं क्योंकि भाव-ज्ञान को प्रमेय करने पर वे संवाद-स्वरूप में सत्यता की अपेक्षा रखते हैं। कथंचित् सभी ज्ञान भ्रान्त ही हैं क्योंकि बाह्य पदार्थ में विसंवाद की अपेक्षा रहती है । कथंचित् उभय रूप हैं क्योंकि क्रम से दोनों की अर्पणा है। कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ संवाद एवं विसंवाद दोनों की अपर्णा है । कथंचित् अभ्रान्त और अवक्तव्य हैं क्योंकि संवाद एवं युगपत् दोनों की विवक्षा है । कथंचित् भ्रान्त, अवक्तव्य हैं क्योंकि विसंवाद एवं युगपत् दोनों की अपेक्षा है । कथंचित् सभी ज्ञान उभय एवं अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम एवं अक्रम से द्वय की विवक्षा है ।
इस प्रकार से पूर्व के समान सप्तभंगी प्रक्रिया को योजित कर लेना चाहिये क्योंकि उसी प्रकार के अतिदेश-आगम की सामर्थ्य से वह सप्तभंगी विचार-परीक्षा सिद्ध है । एवं प्रमाण नय के आदेश से भी उस सप्तभंगी को समझ लेना चाहिये।
1 तथैव गुरुपदेशसामर्थ्यात् बलात्सप्तभङ्गीविचारस्य सिद्धि या : प्रमाणनयापेक्षयापि । दि० प्र० ।
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