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अप्रत्यक्षवानवाद का खण्डन ।
तृतीय भाग
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की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि आप आत्मा के स्वसंवेदन में स्वत: आत्मा को ही करण मानते हैं पुनः पदार्थ के ज्ञान में क्या बाधा है ? तथा कर्ता से अभिन्न भी अविभक्त कर्तृक करण सिद्ध है जेसे अग्नि उष्णता से काष्ठ को जलाती है तथैव आत्मा ज्ञान के द्वारा स्व-पर को जानता है । यदि आप अर्थ की प्रकटता को ज्ञान का धर्म कहें तो भी जहाँ-जहाँ परोक्ष ज्ञान है वहां-वहां अर्थ की प्रकटता है इस व्याप्ति के न होने से परोक्ष ज्ञान के अभाव में भी पदार्थ का स्वरूप देखा जाता है।
__ दूसरी बात यह है कि सुख:-दुःखादि ज्ञान को परोक्ष मान लेने पर हर्ष-विषादि भी नहीं हो सकेंगे। इस पर यदि बौद्ध कहे कि सुख-दुःख आदि अनुभव ज्ञान भ्रांत है तब तो उनसे यह प्रश्न किया जाता है कि यह अनुभव कथंचित् भ्रांत है या सर्वथा ? यदि सर्वथा भ्रांत मानों तब तो सर्वत्र बाह्य पदार्थ में एवं स्वस्वरूप में सर्वदा स्वप्नवत् जाग्रत अवस्था के अनुभव भी भ्रांत हो जावेंगे। यदि कथंचित् कहें तो अर्थ में ही यह अनुभव भ्रांत रहा स्वस्वरूप में नहीं तब तो आप स्याद्वाद में अनुप्रवेश कर जावेंगे।
अतएव स्वसंवेदनरूप अंतःप्रमेय की अपेक्षा से कोई भी ज्ञान अप्रमाण नहीं है किन्तु बाह्यार्थ की अपेक्षा से प्रमाण एवं प्रमाणाभास की अवस्था होती है क्योंकि वह प्रमाण संवादक एवं प्रमाणाभास विसंवादक है।
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